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________________ नैष्कर्म्य सिद्धिः मिथ्यात्रज्ञान जैसे अनात्माका धर्म है, वैसे ही उसका कारण अज्ञान भी श्रनारमाका ही धर्म है, यह कहते हैं १६० ज्ञान (प्रमाण), ज्ञाता ( ग्रहङ्कार ) तथा ज्ञेय इन तीनोंको जो अविकारी रहकर ही प्रकाशित करता है, उस श्रात्मा के बाहर ही अज्ञानरूप तम रहता है, अर्थात् अज्ञान उस आत्माका स्वरूप भी नहीं हो सकता और धर्म भी नहीं हो सकता है ॥५४॥ यत एतदेवमतस्तस्यैव बीजात्मनस्तमसश्चित्तधर्मविशिष्टस्य स्वकार्यद्वितीयाभिसम्बन्धो न त्वविकारिण आत्मन इत्याह दृष्टान्तेन रूपप्रकाशयोर्यद्वत्सङ्गतिर्विक्रियावतोः । सुखदुःखादिसम्बन्धश्चितस्यैव विकारिणः ॥ ४६ ॥ चूँकि विकाररहित ही आत्मा इन पूर्वोक्त तीनोंको जानता है, श्रतएच चित्त परिणामोंसे विशिष्ट बीजरूप अज्ञानका ही स्वकार्यरूप द्वितीयके साथ ( साक्षात् ) होता है, न कि अविकारी ग्रात्माका ? उसका सम्बन्ध तो अज्ञानोपाधिसे उत्पन्न हुए चित्ररूप उपाधिके द्वारा हो होता है, स्वभावसे नहीं; इस बातको दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं- जैसे रूप और प्रकाश, ये दोनों ही विकारी हैं, अतएव उन दोनोंका परस्पर सन्बन्ध होता है | वैसे ही सुखदुःखादिसे सम्बन्ध विकारी चितका ही होता है आत्माका नहीं ॥ ४६ ॥ तदेतदन्वयव्यतिरेकाभ्यां दर्शयिष्यन्नाह - सम्प्रसादेऽविकारित्वादस्तं याते विकारिणि । पश्यतो नात्मनः किञ्चिद्वितीयं स्पृशतेऽखपि ||४७|| चित्तके साथ सम्बन्ध रहनेसे ही आत्माका दुःखादिके साथ सम्बन्ध होता है, उसके न रहने से नहीं होता। इस कही हुई बातको अन्वयव्यतिरेक से दिखलाते हुए कहते हैं— जव सुषुप्ति समय में विकारी चित्त प्रस्तको प्राप्त होता है, तब विकारी और असदृष्टि स्वरूप, प्रकाशमय श्रात्मा के साथ किञ्चिन्मात्र भी द्वैतका स्पर्श नहीं होता ||४७|| सोऽयं कूटस्थज्ञानमूर्तिरात्मा - यथा प्राज्ञे तथैवाऽयं स्वमजागरितान्तयोः । पश्यन्नप्यविकारित्वाद् द्वितीयं नैव पश्यति ॥ ४८ ॥ श्रत: यह कूटस्थ ज्ञानस्वरूप श्रात्मा जैसे सुषुप्ति अवस्थामें अविकारी १ - विक्रियावतः, ऐसा पाठ भी है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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