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________________ १४१ - माषानुवादसहिता .. यतो नाऽनुमानेन व्याविद्धाऽशेषक्रियाकारकंफलात्मनि स्वाराज्येऽभिषेक्तुं शक्यते तस्मात् अविद्यानिद्रया' सोऽयं प्रसुप्तो दुर्विवेकया। भावाऽभावव्युदासिन्या श्रुत्येव प्रतिबोद्धयते ॥ ११५ ॥ चूंकि अनुमानके बलसे सम्पूर्ण क्रिया, कारक और फलसे रहित, शुद्ध ब्रह्मरूप स्वाराज्यमें अभिषिक्त नहीं कर सकते, इसलिए प्रमाणान्तरसे निवृत्त नहीं होनेवाली इस अविद्यारूप निद्रामें सोया हुआ यह पुरुष भाव और अभावको दूर करनेवाली श्रुतिसे ही जगाया जाता है ॥ ११५ ॥ अत्राऽऽह, अनुदिताऽनस्तमितविज्ञानात्ममात्रस्वरूपत्वाद् दुःसम्भाव्याऽविद्येति । नैतदेवम् । कुतः ? यत आह कुतोऽविद्येति चोचं स्यान्नैवं प्राग्त्वांभवात् । कालत्रयाऽपरिच्छित्तेन चोर्ध्व चोद्यसंभवः ॥ ११६ ॥ उत्पत्ति और विनाशसे रहित ज्ञानस्वरूप प्रात्मा अविद्याका कैसे संभव हो सकता है ? ऐसी शङ्का नहीं करना चाहिए, क्योंकि क्या विद्याके पूर्व अविद्याका होना सम्भावित समझते हैं, या विद्याके अनन्तर ? यदि कहिए कि विद्याके पूर्व अविद्याकी सम्मावना नहीं, तो यह ठीक नहीं। कारण, आत्मा ज्ञानरूप है, ऐसा ज्ञान ही जब नहीं उदय हुआ, तब यह शङ्का कैसे हो सकेगी? यदि ज्ञान होनेके बाद शङ्का करो, तब तो आत्मामें कालत्रयमें भी अविद्या नहीं है, ऐसा बोध जब हो गया, तब ऐसी शङ्का किस तरहसे हो सकती है ? ॥ ११६ ॥ यस्मात्तत्वमस्यादिवाक्यमेवात्मनोऽशेषामविद्यां निरन्वयामपनुदति । तस्मात् __ अद्धातममनादृत्य प्रमाणं सदसीति ये। __ 'बुभुत्सन्तेऽन्यतः कुर्युस्तेऽक्षणापि रसवेदनम् ॥ ११७॥ . . . चूंकि 'तत्वमसि' इत्यादि वाक्य हो आत्माको समस्त अविद्याको, जिसकी कि प्रास्मासे किसी प्रकार भी सम्बन्ध हो ही नहीं सकता, दूर हटा देता है। इसलिएजो लोग साक्षात् आत्मतत्त्वके ज्ञान करानेमें समर्थ, सुनिश्चित प्रमाण-तत्त्वमसि आदि महावाक्यका अनादर करके अन्य प्रसङ्ख्थानादि (ध्यान, उपासना आदि) के १-अनिद्रो निद्रया, ऐसा भी पाठ है। २-बुभुत्सन्तः, ऐसा पाठ भी है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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