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________________ नैष्कर्म्यसिद्धिः प्रामाणानां सतां न विरोधः श्रोत्रादीनामिव भिन्नविषयत्वात् । ययोश्चाऽभिन्नविषयत्वं तयोराखुनकुलयोरिव प्रतिनियत एव वाध्य - वाधकभावः स्तात् । अतस्तदुच्यते प्रत्यक्ष चेन्न शाब्दं स्याच्छाब्दं चेदक्षजं कथम् । प्रत्यक्षाभासः प्रत्यक्षे ह्यागमाभास आगमे ॥ ८५ ॥ १२८ शङ्का —-कहीं प्रत्यक्ष अनुमानसे बाधित होता है । जैसे --'सैवेयं ज्वाला' यहाँपर ज्वालाका ऐक्य प्रत्यक्ष अनुमानसे बाधित होता है। ऐसे ही 'न हिंस्यात्सर्वा भूतानि' यह : वाक्य 'अग्नीषोमीयं पशुमालमेत' इस वाक्यसे बाधित होता है । तत्र प्रमाणका विरोध नहीं है, यह बात कैसे कह सकते हैं ? I । समाधान-जहाँ दोनों प्रमाण एक ही विषयमें भिन्नरूपताका बोध कराते हैं, वहाँपर उनका बाध्य बाधकभाव होनेपर भी दोनों प्रमाण नहीं, किन्तु एक ही प्रमाण है । जो बाधित हुआ है वह प्रमाण है जहाँ दोनों प्रमाण हैं वहाँ उनका विरोध ही नहीं है । क्योंकि श्रोत्रादिके समान दोनों के विषय हो भिन्न हैं । और जहाँ दोनोंका विषय एक है वहाँ चूहा और नकुलके समान बाध्य बाधक भाव व्यवस्थित है, विपरीत " नहीं होता । यह कहते हैं । जो वस्तुत: प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है, वह शब्द प्रमाण से बाधित भी नहीं होगा किंवा बोधित भी नहीं होगा । इसलिए वह शब्द - प्रमाणक नहीं है है वह प्रत्यक्ष से बाधित भी नहीं होता किंवा बोधित भी नहीं होता 1 । जो शब्दप्रमाणक । इसलिए प्रमाणका । कोई विरोध नहीं है । जिनमें बाध्य बाधकभाव रहता है, उन दोनोंमें एक ही प्रमाण . है, दूसरा प्रमाण है जैसे- 'यह शुक्ति है, ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण मानने पर 'यह रजत है' ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान प्रमाण होता है। ऐसे ही एक विषय में शब्द प्रमाण मान लिया गया तो वहाँ उसका विरोधी दूसरा शब्द प्रमाणाभास हो जाता है । इस प्रकारसे आगम और प्रत्यक्ष तथा प्रत्यक्ष और अनुमानका बाध्य बाधकभाव प्रसिद्ध है, अन्य प्रकार से नहीं ॥ ८५ ॥ न च प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तन्याय इह सम्भवति शब्दादीनां प्रत्येकं प्रमाणत्वात् । अत आह— स्वमहिम्ना प्रमाणानि कुर्वन्त्यर्थावबोधनम् । इतरेतरसाचिव्ये प्रामाण्यं नेष्यते स्वतः || ८६ ॥ यदि कोई कहे कि 'जैसे प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त, ये परस्पर सापेक्ष, रहकर हौ बोध कराते हैं। वैसे ही प्रत्यक्ष और अनुमान में भी परस्परापेक्षा से ही बोधकता די.
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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