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________________ १२६ नैष्कयैसिद्धिः अज्ञात पुरुषार्थत्वाच्छ्रौतत्वात्तत्त्वमर्थयोः स्वमर्थ परित्यज्य बाधको 'स्तां विरुद्वयोः ॥ ८० ॥ संसारित्व और परोक्षत्वरूप धर्मोंका विरोध होने के कारण यदि तत् स्वं पदार्थ से बाघ होता है, फिर विरोध समान होनेसे विपरीत ही क्यों नहीं होता अर्थात् तत् स्वं पदार्थका ही बाघ क्यों नहीं होता ? इस श्राशङ्का को दूर करनेके लिए तत् स्वम् पदार्थ ही बाधक होते हैं, इस विषय में और भी कारण बतलाते हैं- तत् पदार्थ और स्वम् पदार्थका ऐक्य प्रमाणान्तर से अज्ञात है तथा ज्ञात होनेसे मुक्तिरूप फलको देता है, इसलिए वह श्रुतिके तात्पर्यका विषय है । परोक्षत्व तथा संसारिश्व पूर्वोक्त प्रकारसे ज्ञात अथवा पुरुषार्थरूप नहीं है, इसलिए श्रुतिका उनके ara तार्य नहीं है । इसीलिए तत्त्वं पदार्थ ही अपना विशेषण विशेष्यभावरूप अर्थका परित्याग न करके विरोधीभूत परोक्षत्व, दुःखित्वादिके बाधक होते हैं ॥ ८० ॥ एवं तावद्यथोपक्रान्तेन प्रक्रियावर्त्मना न प्रत्यक्षादिप्रमाणान्तरैर्विरोधगन्धोऽपि सम्भाव्यते । यदा पुनः सर्वप्रकारेणाऽपि यतमाना नैवेमं वाक्यार्थ सम्भावयामः प्रत्यक्षादिप्रमाणान्तरविरोधत एव । तस्मिन्नपि पक्ष उच्यते प्रत्यक्षादिविरुद्ध चेद्वाक्यमर्थं वदेत्कचित् । स्यात्तु तद् दृष्टिविध्यर्थं योषाऽग्निवदसंशयम् ।। ८१ ।। इस प्रकार पूर्वी प्रकिया के मार्ग से प्रत्यक्षादि प्रमाणान्तरसे विरोधका लेश भी सम्भावित नहीं होता । यदि प्रत्यक्षादि प्रमाणान्तरसे विरोध है, ऐसा ही मान कर सब प्रकारसे यत्न करनेपर भी प्रखण्ड वाक्यार्थकी सम्भवना नहीं ही हो सकती, ऐसा ही आपका हठ हो तो उस प्रक्ष में भी कोई क्षति नहीं है । यह कहते है - यदि वाक्य कहीं पर प्रत्यक्षादि विरुव अर्थका प्रतिपादन करे, तब वह वाक्य निःसंशय उपासना विधानार्थ होगा । जैसे कि 'स्त्री अग्नि है' यह वाक्य स्त्रां में अग्निं. बुद्धिका विधान करने के लिए है। क्योंकि यह वाक्य प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे विरुदूध है । ऐसा प्रकृत मान लेने से 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्य की वस्तुनिष्ठता का परित्याग करके दृष्टि के विधान के लिए यह वाक्य है, ऐसा मानना पड़ेगा ॥ ८१ ॥ यदा तु तत्त्वमस्यादिवाक्यं सर्वप्रकारेणापि विचार्यमाणं न क्रियां कटाक्षेणाऽपि वीक्षते, तदा प्रसङ्ख्यानादिव्यापारो दुःसम्भाव्य इति । तदुच्यते १ बाधकौ स्तः, ऐसा पाठ भी है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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