SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषानुवादसहिता १०७ चूँकि शोधित तत्-त्वम् पदार्थ के ज्ञानमें प्रमाणान्तरसे विरोध नहीं है, इसलिए हीयमान अर्थात् त्यागने योग्य और उपादीयमान अर्थात् ग्रहण करने योग्य प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय अन्वयव्यतिरेक द्वारा, जिस प्रकार मुज ( मूँज ) नामक तृणसे उसके भीतर रहनेवाले सूक्ष्म तृणको बड़ी सावधानीसे पृथक् करते हैं, उसी प्रकार आत्माको सम्पूर्ण बुद्धि-विकारोंका यह साक्षी है, इस रूपसे पृथकू जानकर तत्त्वमस्यादि वाक्यों से, अज्ञात सच्चिदानन्दरूप आत्माको जानना चाहिए । इसी बात को कहते हैं अहं दुःख सुखी चेति येनाऽयं प्रत्ययो ध्रुवः । अवगत्यन्त आभाति स म आत्मेति वाक्यधीः ॥ ४६ ॥ 'मैं दु:खी हूँ, सुखी हूँ' इत्यादि ज्ञान अध्रुव अर्थात् क्षणिक हैं । इन सत्र वृत्तियों तथा इनकी प्रमितियोंका भी प्रकाश जिससे होता है, वही मेरा श्रात्मा है, ऐसी बुद्धि वाक्यके द्वारा होती है ॥ ४६ ॥ प्रमाणान्तराऽनवष्टब्धं निरस्ताऽशेषकार्यकारणात्मकद्वैतप्रपञ्च सत्यज्ञानानन्दलक्षणमात्मानं तत्त्वमस्यहं ब्रह्मास्मीत्यादिवाक्यं संशयित - मिथ्याज्ञानाऽज्ञानप्रध्वंसमुखेन साक्षादपरोक्षात्करतलन्यस्ताऽमलकवत्प्रतिपादयत्येवेत्यसकृदभिहितम् । तत्र केचिदाहुः- तत्त्वमस्यादिवाक्यैर्यथाव स्थित 'वस्तुयाथात्म्यान्वाख्याननिष्ठैर्न यथोक्तोऽर्थः प्रतिपत्तुं शक्यतेऽभिधाश्रुतित्वात्तेषाम् । न हि लोकेऽभिधाश्रुतेः प्रमाणान्तरनिरपेक्षाया नद्यास्तीरे फलानि सन्तीत्यादिकायाः प्रामाण्यमभ्युपगतम् । अतो नियोगमुखेनैवाभिधाश्रुतेः प्रामाण्यं युक्तं प्रमाणान्तरनिरपेक्षत्वान्नियोगस्य । अस्य परिहारार्थमशेषप्रत्यक्षादिप्रमेयत्व निराकरणद्वारेणाऽ`तीन्द्रियार्थविषयत्वाद - · भिधाश्रुतेः प्रामाण्यं सुप्तपुरुषप्रबोधकवाक्यस्येव वक्तव्यमित्ययमारम्भःप्रमाणान्तर से अज्ञात, कार्यकारणात्मक द्वैतप्रपञ्चसे रहित, अखण्ड, सत्य ज्ञान, आनन्द स्वरूप श्रात्माका - सन्देह, मिथ्याज्ञान, भ्रान्ति, तथा अज्ञानका नाश करके प्रत्यक्षरूप से हस्तस्थित आमलक ( आँवले ) के सदृश - प्रत्यक्षात्मक ज्ञान तत्त्वमस्यादि वाक्य से उत्पन्न होता है । इस बातका अनेक बार प्रतिपादन किया । इसपर कोई ऐसा कहते हैं कि “सिद्धार्थं वस्तुपर अर्थात् जो वस्तु जैसी है उसका यथार्थरूपसे बोध १ याथात्म्यव्याख्यान, ऐसा भी पाठ है । २ श्रनिन्द्रियार्थविषयत्वात्, ऐसा पाठ भी है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy