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________________ भाषानुवादसहिता जैसे छान्दोग्य उपनिषद में 'वही सत्य है' 'वही आत्मा है। वहीं ता है। इस वाक्य की अङ्गभूत अन्वय-व्यतिरेकबोधक यह श्रुति है। जैसे-'जो या भेत्रों में पुरुष देख पड़ता है। यहाँसे लेकर 'अनन्तर जो ऐसा जानता है, मैं इसको जात्रा करूं' यहाँतक। वैसे ही वृहदारण्यक उपनिषद्में भी 'मैं ब्रह्म हूँ' इस वाक्यकी शेषभूत 'योऽयं विज्ञानमयः' इत्यादि श्रुति 'अहं ब्रह्माऽस्मि' इस महावाक्यके अहं पदका अर्थ सम्पूर्ण अनात्मासे रहित, अहङ्कारका साक्षी, लक्ष्यभूत प्रत्यगात्मा है, ऐसा युक्तिपूर्वक बार-बार प्रतिपादन करती है ।। ४० ॥ ___ कथं पुनरयमर्थोऽवसीयते 'अहं व्याजेनात्रात्मार्थो बुबोधयिपिन इति । यतः एष आत्मा स्वयज्योती रविसोमाग्निवाक्षु सः। इतेधस्तं दृगेवास्ते भासयश्चित्तचेष्टितम् ।। ४१ ॥ शङ्का-किस युक्तिसे यह सिद्ध होता है कि 'अहम्' शब्द वाच्यार्थका परित्याग करके लक्षणासे कूटस्थ आत्माका बोधन करता है, ऐसा श्रुतिको अभिमत है ? __समाधान—चूँकि सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वाणी इत्यादि प्रकाशक पदार्थों के अस्त हो जानेपर भी स्वप्नावस्थामें सब प्रकारके चित्त-व्यापारको जो प्रकाशित करता है, वह स्वयं-प्रकाश आत्मा है, ऐसा श्रुतिने प्रतिपादन किया है ।। ४१ ॥ निणेनेक्ति च पृष्टो मुनिः आत्मनैवेत्युपश्रुत्य कोऽयमात्मेत्युदीरिते । वुद्धेः परं स्वतो मुक्तमात्मानं मुनिरभ्यधात् ।। ४२ ॥ श्रात्मप्रकाशसे ही समस्त व्यवहार होता है, इसको सुनकर शिष्यने जब प्रश्न किया कि आत्मा शब्द तो कोश-पञ्चकमें भी प्रयुक्त होनेसे साधारण है । अतएव आत्मशब्दका मुख्य अर्थ क्या है ? इसपर श्रीयाज्ञवल्क्य मुनिने पुनः पुनः निर्णय करके बतलाया कि बुद्धिसे परे नित्यमुक्त जो वस्तु है, वही आत्मशब्दका अर्थ है ॥ ४२ ॥ यस्माचात्मावाऽहंव्याजेन पत्यङमात्रो जिग्राहयिषितस्तस्मादहंवृत्तिः स्वरूपस्य विलयेनैव 'बाक्यार्थाऽवगमाय कारणत्वं प्रतिपयत इतीममर्थमाह अहंवृत्त्यैव तद्ब्रह्म यस्मादेषोऽवगच्छति । तत्स्वरूपलयेनातः कारणं स्यादहंकृतिः ।। ४३ ॥ १ विलयेनैवावाक्यार्थम्, ऐसा पाठ भी है। २ मत्स्वरूप, ऐसा भी पाठ है ।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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