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________________ १०२ नैष्कर्म्यसिद्धिः भिन्न भिन्न प्रयोगों में पदोंका अावाप और उद्वाप ( अर्थात् किसी नये पदकों उस वाक्यमें जोड़ना, और जो है उसको उसमें से निकालना) तथा अन्वय-व्यतिरेकसे वृद्ध व्यवहार द्वारा पदार्थों को समझकर वाक्य के तात्पर्यके अनुसार वाक्यार्थका ज्ञान होता है ॥ ३१ ॥ कुतः पुनः सामान्यमात्रवृत्तः पदस्य वाक्यार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वमिति ? वाढम् । सामान्यं हि पदं ब्रूते विशेषो वाक्यकर्तृकः ।। श्रुत्यादिप्रतिबद्धं सद्विशेषार्थं भवेत्पदम् ।। ३२ ॥ __ शङ्का- सामान्य अर्थात् जातिमात्रका बोधक जो शब्द है, उससे विशेषरूप वाक्यार्थकी प्रतीति कैसे हो सकती है ? क्योंकि शब्दोंकी शक्ति तो दूसरेमें ही और बोध दूसरेका हो, ऐसा कहीं देखनेमें नहीं आया ? उत्तर-हाँ, शब्द अर्थात् पदमात्र यद्यपि सामान्यका ही वाचक है, तो भी विशेषकी प्रतीति वाक्यके तात्पर्यबलसे होती है। अतएव श्रत्यादिसे सङ्कचित होकर पद भी विशेषार्थक होता है ॥ ३२ ॥ अन्वयव्यतिरेकपुरस्सरं वाक्यमेव सामानाधिकरण्यादिनाऽविद्या पटलप्रध्वंसद्वारेण मुमुक्षु स्वाराज्येऽभिषेचयति न त्वन्वयव्यतिरेकमात्रसाध्योऽयमर्थ इत्याह बुद्धयादीनामनात्मत्वं लिङ्गादपि च सिद्धयति । निवृत्तिस्तावता नेती त्यतो वाक्यं समाश्रयेत् ॥ ३३ ॥ अन्वय व्यतिरेक पूर्वक वाक्य ही सामानाधिकरण्यादि द्वारा अविद्याके आवरणको नष्टकर मुमुक्षुको स्वाराज्यपदमें अभिषिक्त करता है, केवल अन्वयव्यतिरेक मात्रसे यह साध्य नहीं है, यह बात कहते हैं बुद्धयादिका अनात्मपन युक्तिसे भी सिद्ध होता है। परन्तु उनके कारणीभूत अज्ञानकी निवृत्ति पुरस्सर इनकी निवृत्ति युक्तिमात्रसे सिद्ध नहीं होती । क्योंकि युक्ति स्वयं प्रमाण नहीं है। अतएव युक्तिसे अज्ञानकी निवृत्ति नहीं हो सकती । इसलिए प्रमाणभूत वाक्यका ही पालम्बन करना चाहिए ॥ ३३॥ न केवलमनुमानमात्रशरणोऽभिलषितमर्थ न प्राप्नोतीत्यनर्थ च प्राप्नोतीत्याहं १ अविद्यामल, भी पाठ है। २ नैतीत्यतः 'भो पाठ है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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