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________________ १०० नैष्कर्म्यसिद्धिः समाधान-जो यह सर्प है, वह रज्जु है। ऐसे प्रयोगमें सर्पस्वरूप असत्य होनेसे विवक्षित नहीं है। अतएव रज्जुसे उस सर्पका वास्तव सम्बन्ध भी नहीं है। और रज्जुके ज्ञानसे वह सर्प बाधित भी होता है। ऐसा होनेपर भी वह मिथ्यासर्प स्वाधिष्ठानभूत रज्जुका लक्षक जैसे होता है ? क्योंकि प्रतिभासमान सर्पाकारका अनुवाद किये बिना अप्रकाशमान रज्जुके आकारका ज्ञान शब्दसे नहीं हो सकता। वैसे ही अहङ्कार अविवक्षित, सम्बन्धरहित और बाधित है । तथापि शुद्ध आत्मामें अध्यक्त होकर उसका लक्षक हो सकेगा। भ्रान्तिसे अहं इस रूपसे गृहीत आत्माका उसके अनुवादके बिना तात्त्विकरूपसे वाक्य द्वारा उसका प्रतिपादन नहीं हो सकता। अतएव जैसे रज्जुके ज्ञानसे सर्पको बाधित कर ही 'जो सप है वह रज्जु है, इस वाक्यसे अर्थ बोध होता है। वैसे ही 'मैं ब्रह्म हूँ' इस वाक्यसे अर्थज्ञान अहङ्कारका बाध होनेपर ही होगा। इसलिए 'ब्रह्म पद और 'अहम्' पद, इन दोनोंमें भिन्नार्थत्वको शङ्का नहीं करनी चाहिए ॥ २७ ॥ इयश्चाऽवाक्यार्थप्रतिपत्तिरन्वयव्यतिरेकाभिज्ञस्यैव । यस्मातयावद्यावनिरस्याऽयं . देहादीन्प्रत्यगञ्चति । तावत्तावत्तदर्थोऽपि त्वमर्थं प्रविविक्षति ॥ २८ ॥ यह पूर्वोक्त अखण्डार्थका ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकको जाननेवालेको ही हो सकता है। क्योंकि ज्यों ज्यों यह मुमुक्षु देहसे लेकर मायापर्यन्त अनात्म पदार्थोको, जो कि आत्मबुद्धिसे गृहीत हैं, निरास करता है, त्यो त्यों तत्पदार्थ भी त्वंपदार्थके साथ अभेद ज्ञान होनेसे एक रूप अखण्ड प्रकाशित होता है। क्योंकि विरोधी जो परिच्छेदाभिमान है वह निवृत्त हो जाता है ॥ २८॥ कस्मात्पुनः कारणादेहाधनात्मत्वप्रतिपत्तावेवात्मा तदर्थमात्मत्वेनाभिलिङ्गते, न वियर्यय इति ? उच्यते-प्रत्यगात्माऽनवबोधस्याऽनात्मस्वाभाव्यात्तदभिनिवृत्तश्चाऽयं बुद्धयादिदेहान्तस्तस्मिन्नात्मत्वमविद्याकृतमेवात्मत्वमिवाऽनात्मत्वपि साविद्यस्यैव । यतो निरविद्यो विद्वानवाक्यार्थरूप एव केवलोऽवशिष्यते । तस्मादुच्यते- . देहादिव्यवधानत्वात्तदर्थ स्वयंमप्यतः । पारोक्ष्येणैव जानाति साक्षात्वं तदनात्मनः ॥ २९ ॥ शङ्का-देहादिमें अनात्मत्वका निश्चय होनेपर ही प्रत्यगात्मा तत्पदार्थमें अभिन्नरूपसे मिलता है । निश्चय न हुआ तो नहीं । इसका क्या कारण है ? १ इयं च वाक्यार्थप्रतिपत्तिः, ऐसा भी पाठ भेद है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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