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________________ भाषानुवादसहिता ९९ तत् स्वं पदार्थका निर्देश भी विरुद्ध है, इसलिए परोक्षत्व, दुःखित्व यहाँ विवक्षित नहीं है, यह कहते हैं- 'तत्वमसि' - वाक्य में उद्दिश्यमानत्वं पदार्थात्मक वस्तु उद्देश्य दशामें प्रतीत होनेवाले संसारित्व गुण से युक्त होकर विधेय जो सकल संसार रहित वस्तु है उसके साथ सम्बन्धको प्राप्त नहीं हो सकती। ऐसे ही तत्पदार्थ भी उद्देश हो तो उस समय भी वह परोक्षत्वादिविरुद्ध गुणीसे युक्त होकर नित्य अपरोक्ष प्रत्यगात्मा के साथ अन्वित नहीं हो सकता इसलिए दोनो जगह विरुद्ध धर्मोकी अविवक्षा है || २५ || यत एतदेवमतोऽनुपादित्सितयोरपि तत्त्वमर्थयोर्विशेषणविशेष्यभावो भेद ' रहित संसर्गवाक्यार्थ लक्षणयैवेति उपसंहारःतदो विशेषणार्थत्वं विशेष्यत्वं त्वमस्तथा । लक्ष्यलक्षणसम्बन्धस्तयोः स्यात्प्रत्यगात्मना ॥ २६ ॥ क्योंकि विरुद्ध धर्मोकी विवक्षा यहाँ नहीं है, इसीलिए अनुप | दित्सित अर्थात् विवक्षित भी त्वंपदार्थ और तत्पदार्थका विशेषण विशेष माच भेद न रहने के कारण संसर्ग किंवा विशिष्टरूप वाक्यार्थसे भिन्न खण्डरूप वाक्यार्थ में ही लक्षणाद्वारा पर्यवसित होता है । ऐसा उपसंहार करते हैं तत्पदार्थ विशेषण है और त्वंपदार्थ विशेष्य है । क्योंकि वह सामान्यरूपसे प्रसिद्ध है, और उसीमें ब्रह्मत्वज्ञान से अनर्थनिवृत्तिपूर्वक पुरुषार्थ सिद्ध होनेवाला है । इन दोनों में विरोधस्फूर्ति हो तो दोनों पदार्थोंसे लक्ष्यलक्षणभाव सम्बन्ध से शुद्ध अखण्ड आमाका ज्ञान होता है ॥ २६ ॥ कथं पुनरविवक्षितविरुद्ध निरस्यमानस्य लक्षणार्थत्वम् ? लक्षणं सर्पवद्रज्ज्वाः प्रतीचः स्यादहं तथा । धेनैव वाक्यार्थं वेत्ति सोऽपि तदाश्रयात् ॥ २७ ॥ शङ्का-अहङ्कारद्वारा शुद्ध आत्मा कैसे लक्षित हो सकता है ? क्योंकि जहाँपर लक्षणा होती है, जैसे- 'गङ्गायां घोष:' इत्यादि स्थलों में । वहाँ गङ्गाशब्दसे तीर लक्षित होता है । परन्तु गङ्गा शब्दका वाच्यार्थ जो जलप्रवाह है वह अविवक्षित नहीं होता । कारणगङ्गातीरका बोधन करनेके निमित्त उसकी आवश्यकता होती है। ऐसे ही यहाँपर वाच्यार्थ का लक्ष्यार्थसे विरोध भी नहीं है, एवं वाच्यार्थ जो जलप्रवाह है उसका लक्ष्यार्थ तीरके साथ सम्बन्ध भी है । प्रकृत स्थल में तो सर्वथा उलटा है । जैसे श्रहङ्कार पुरुषार्थ होनेसे विवक्षित है और मिथ्या होनेसे शुद्ध श्रात्मासे अत्यन्त विरोध भी है । ऐसे शुद्ध लक्ष्य पदार्थ के ज्ञानसे बाधित भी होता है तब यह लक्षक कैसे हो सकता है ? 1 १ भेदसंसर्गरहितावाक्यार्थ, भी पाठ है ।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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