SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैष्कर्म्यसिद्धिः कूटस्थबोधप्रत्यक्त्वमनिमित्त सदात्मनः । बोद्धृताहन्तयोर्हेतुस्ताभ्यां तेनोपलक्ष्यते ॥ ११ ॥ सामानाधिकरण्य और विशेषण विशेष्य भावका संक्षेपसे व्याख्यान कर दिया। अब लक्ष्य लक्षण भाव रूप तृतीय सम्बन्धका व्याख्यान करनेके लिए कहते हैं श्रास्माकी लक्ष्यभूत कूटस्थज्ञानरूपता तथा प्रत्यग्रूपता सर्वकालमें स्वाभाविक है । स्वभावसे बोधरहित जहरूप बुद्धि में बोद्धत्व और अहन्ताका वही हेतु है । इसलिए बुद्धिनिष्ठ बोद्धृत्व और अहन्तासे अात्मा लक्षित होता है । इस प्रकारसे त्वंपदका वाच्यार्थ जो बुद्धि-विशिष्ट चैतन्य है वह लक्षण और शुद्ध आत्मा लक्ष्य सिद्ध हुश्रा ॥ ११ ॥ बुद्धेः कूटस्थबोधप्रत्यक्त्वनिमिचे बोद्धृता प्रत्यक्त्वे ये असाधारणे तयोविशेषवचनम् वोद्धृता कर्तृता बुद्धेः कर्मता स्यादहन्तया । तयोरैक्यं तथा बुद्धौ पूर्वयोरेवमात्मनि ॥ १२ ॥ बुद्धिनिष्ट बोद्धत्व और प्रत्यक्त्व यदि शुद्ध चैतन्यनिष्ठ बोद्धृत्व और प्रत्यक्त्वका निमित्त हो, तब दोनोंका कुछ विशेष कहना चाहिए । नहीं तो दोनोंका हेतुहेतुमद्भाव नहीं हो सकेगा। इसलिए बुद्धि और चैतन्य, दोनोंमें जो बोद्धृत्व प्रत्यक्व है उनका वैलक्षण्य कहते हैं बुद्धि में जो बोद्धृत्व है, वह विविध विषयाकारोंसे युक्त ज्ञानरूप परिणामका कर्तृत्वरूप ही है। प्रात्माके सदृश कूटस्थ ज्ञानरूप नहीं है। वैसे ही बुद्धिका प्रत्यक्स्व भी यही है जो अहंरूप अर्थात् शबलरूपसे चैतत्यका कर्म अर्थात् भास्य होना । न कि अात्माके समान प्रत्यक्त्व है कतिपय देह, इन्द्रिय, विषय इत्यादिकोंकी अपेक्षासे बुद्धिको प्रत्यक्ध है, किन्तु बुद्धिमें होनेवाले बोद्धृत्व और प्रत्यक्त्वका जैसा परस्पर अभेद है, वैसा ही आत्मनिष्ठ बोद्धत्त्व और प्रत्यक्त्वका भेद नहीं है किन्तु भिन्नके समान प्रतीत होनेपर भी वस्तुतः एक ही है ॥ १२ ॥ . . यथा बुद्धौ पूर्वयोरेवमात्मनीत्यतिदेशेन बुद्धिसाधर्म्यविधानानानात्वप्रसक्तौ तदपवादार्थमाह. . धर्मर्मित्वभेदोऽस्याः सोऽपि नैवाऽऽत्मनो यतः। . प्रत्यग्ज्योतिरतोऽभिन्नं भेदहेतोरसम्भवात् ॥ १३ ॥ जैसे बुद्धिके बोद्धस्व और प्रत्यक्त्वका परस्पर भेद नहीं है। ऐसे ही आत्मनिष्ठ कूटस्थ मोध और प्रत्यक्त्वका भेद नहीं, ऐसा बुद्धि के साथ आत्माका सादृश्य दिखलाया।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy