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________________ भाषानुवादसहिता ८५ भी सत्ता अपने आप ही हो नहीं सकती। इसलिए किसी पुरुषका किसी विषय में अज्ञान होता है, क्योंकि आश्रय और विषयके बिना उसका निरूपण ही नहीं होता, ऐसा मानना चाहिए । इस शास्त्र में दो ही पदार्थ माने गये हैं आत्मा और अनात्मा । उनमें अनात्मज्ञानका विषय और श्राश्रय नहीं हो सकता क्योंकि अनात्माका स्वरूप ही अज्ञान है उसको और ज्ञान क्या होगा ? स्वत: अज्ञान ग्रज्ञानसे श्रावृत है, ऐसी बात कभी भी नहीं घटती । कदाचित् श्रज्ञानपर अज्ञान मान भी लें तो उससे लाभ क्या ? अज्ञानमें ज्ञानसे कोई विशेष तो होनेवाला नहीं है । यदि अज्ञान में ज्ञानकी प्राप्ति होती, तो भी उसके प्रतिषेधके लिए अज्ञान में अज्ञान मान भी लिया जाता, सो भी नहीं । और अनात्मा अज्ञानसे उत्पन्न हुआ है, फिर अज्ञानका श्राश्रय अनात्मा कैसे हो सकता है ? यह बात कभी भी मानी नहीं जा सकती कि पूर्व से सिद्ध जो वस्तु है, वह उससे ही स्वरूप सत्ताको प्राप्त होनेवाले और प्रतीत होनेवाले पदार्थका आश्रय करके रह सकती है । इन्हीं कारणों से अनात्मा अज्ञानका विषय है, यह भी नहीं कह सकते । एवं तावन्नानात्मनोऽज्ञानित्वं नाऽपि तद्विषयमज्ञानम् । पारिशेsयादात्मन एवाऽस्त्वज्ञानं तस्याऽज्ञोऽस्मीत्यनुभवदर्शनात् । 'सोऽहं भगवो मन्त्रविदेवास्मि नाऽऽत्मवित्' इति श्रुतेः । न चाऽऽत्मनोऽज्ञानस्वरूपता, तस्य चैतन्यमात्र स्वाभाव्यात् । अतिशयश्च सम्भवति ज्ञानपरिलोपो' ज्ञानप्राप्तेश्च सम्भवस्तस्य ज्ञानकारित्वात् । न चाऽज्ञानकार्यत्वं, कूटस्थात्मस्वाभाव्यात् । अज्ञानानपेक्षस्य च आत्मनः स्वत एव स्वरूपसिद्धेर्युक्तमात्मन एवाऽज्ञत्वम् । किंविषयं पुनस्तदात्मनोऽज्ञानम् ? आत्मविषयमिति ब्रूमः । इस प्रकार अनात्मा ज्ञानका आश्रय और विषय जत्र नहीं हो सकता । फिर, बचा आत्मा । इसलिए यह मान लेना पड़ता है कि उसमें ( आत्मा में ) अज्ञान है क्योंकि आत्माको ही 'मैं ज्ञ हूँ' इस प्रकार अज्ञान का अनुभव हो रहा है । जैसा कि श्रुतिमैं भी वर्णन किया है – 'हे भगवन् ! मैं मन्त्रों को ही जानता हूँ आनाको नहीं ।" और आत्मा नामाकी भाँति अज्ञानस्वरूप भी नहीं है क्योंकि वह चैतन्य-स्वरूप है 1 इसी कारण उसमें अज्ञान माननेसे विशेष अर्थात् विलक्षणता भी बन सकती है— ज्ञान से ग्रात्मस्वरूप ज्ञानका श्रावरण होकर विपरीत रूपसे आत्माका स्फुरण तथा उस आवरण और विपरीत स्फुरण को नष्ट करनेवाले ज्ञानकी प्राप्ति भी हो सकती है । क्योंकि आत्मा विद्या से उत्पन्न ग्रन्तःकरणादि वृत्तिमें प्रतिबिम्बित होकर वृत्ति । १ – विचारलोपोऽज्ञानप्राप्तेः, भी पाठ है । -
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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