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________________ १० नैष्कर्मासिद्धिः • इस प्रकार वादियोंके मतमें मानी हुई प्रक्रियाको मानकर युक्तियोंके द्वारा सम्पूर्ण विकारोंसे रहित एक ही आत्मा है, ऐसा निरूपण किया। अब श्रुतिके अनुकूल प्रक्रियाका अवलम्बन करके उसी बातका निरूपण करते हैं अस्तु वा परिणामोऽस्य दृशेः कूटस्थरूपतः । कल्पितोऽपि मृङ्गवाऽसौ दण्डम्येवाऽप्सु वक्रता ॥ ८४ ।। अथवा यदि अात्मामें परिणाम मान भी लिया जाय तो भी वह कल्पित होने के कारण मिथ्या है ऐसा मानना पड़ेगा। क्योंकि श्रुतिने उसको कूटस्थ कहा है। (चैतन्यके प्रतिबिम्बसे वृत्तियों में भी जब एकाकारता प्रतीत होती है, तब फिर शुद्ध श्रात्मामें भेद कहाँसे हो सकेगा) इसलिए वह जल में दण्डकी वक्रताके समान आत्मामें कल्पित है ॥ ८४ ॥ षट्सु भावविकारेपु निषिद्ध ष्वेवमात्मनि । दोषः कश्चिदिहासक्तं न शक्यस्तार्किकश्वभिः ॥ ८५ ॥ इस प्रकार अात्मामें उत्पत्ति, वृद्धि, इत्यादि छ: विकारोंका निषेध कर देनेपर फिर तार्किक लोग कोई भी दोप नहीं निकाल सकते ! ॥ ८५ ॥ प्रकृतमेवोपादाय बुद्धेः परिणामित्वमात्मनश्च कूटस्थत्वं युक्तिभिरुच्यते। पूर्वोक्त श्रौत प्रक्रियाको लेकर ही बुद्धिकी परिणमिता और आत्माकी कूटस्थताको युक्तियोंसे सिद्ध करते हैं प्रत्यर्थं तु विभिद्यन्ते बुद्धयो विषयोन्मुखाः ।। न भिदाऽवगतेस्तद्वत्सर्वास्ताश्चिनिभा यतः ॥ ८६ ॥ बुद्धियाँ जिस प्रकार प्रत्येक विषयमें भिन्न-भिन्न प्रकारकी होती हैं, इस प्रकार चैतन्यमें भेद नहीं है। क्योंकि वे सब बुद्धि-वृत्तियाँ भी चिदाकार हैं । चैतन्यके प्रतिबिम्बसे वृत्तयों में भी जब एकाकारता प्रतीत होती है, तब शुद्ध अात्मामें भेद कहाँसे हो सकेगा ? स्वतः उसमें कोई भेद प्रतीत नहीं होता। केवल उपाधिमे से ही भेद प्रतीत होता है ।। ८६॥ स्वसम्बद्धार्थ एव । साऽवशेषपरिच्छेदिन्यत एव न कृत्स्नवित् । नो चेत्परिण मेद्वद्धिः सर्वज्ञा साऽऽत्मवद्भवेत् ॥ ८७ ॥ १-सम्बन्धार्थ एव, पाठ भी मिलता है । उच्यते, इति शेषः । २-स्वाश्मवद भवेन , भी पाठ है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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