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________________ प्रथकत्ववितर्क वीचार कहा, तहा प्रथक्त्व वितर्कवीचार-नाना प्रकार श्रुत अर वीचार, अर्थ व्यजन योग, सक्रमन ऐसे रूप क्यो कहा? तिसका उत्तर -कथन दोय प्रकार है एक स्थूलरूप है, एक सूक्ष्मरूप है। जैसे स्थूलता करि तो छटे ही गुणस्थाने सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत कहा, अर सूक्ष्मताकर नवमे गुणस्थान ताई मैश्र मैथुनत्तसज्ञा कही तैसे यहा अनुभव विषै निर्विकल्पता स्थूलरूप कहिये है। बहुगे। सूक्ष्मता करि प्रथक्त्ववितर्क वीचारादिक भेद वा , कषायादि दशामाताई कहे हैं। सो अव आपके जानने मे वा अन्य खे जानने मे आवे ऐसा भाव का कथन स्थूल जानना, अर जो आप भी न जाने केवली भगवान ही जाने सो ऐसे भावका कथन सक्ष्म जानना, अर करणानयोगादिक विषै सूक्ष्म कथन की मुख्यता है अर चरणानुयोगादिक विषे स्थूल कथन की मुख्यता है ऐसा भेद और भी ठिकाने जानना । ऐसा निर्विकल्प अनुभव का स्वरूप जानना। वहरि भाईजी, तुम तीन दृष्टान्त लिखे वा दृष्टान्त विष लिखा प्रश्न सो दृष्टान्त सर्वा ग मिलता नाही। दृष्टान्त है सो एक प्रयोजनको दिखावै है सो यहा द्वितीया का विधु (चन्द्रमा) जलबिन्दु, अग्निकणिका, एतो एकदेश है, अर पुर्णमासी को चन्द्र महासागर अग्निकुड एक सर्वदेश है। तेसे ही चौथे गुणस्थानवर्ती आत्मा को ज्ञानादि गुण एक-देश प्रकट भये है तिनकी अर तेरहवे गुणस्थानवर्ती आत्मा के ज्ञानादिक गुण सर्व प्रकट होय है तिनकी एक जाति है। तहा तुम प्रश्न लिखा - जो एक जाति है जैसे केवली सर्व ज्ञेयोको प्रत्यक्ष जाने है तेसे चौथे गुणस्थान वाला भी आत्माको प्रत्यक्ष जानता होगा ? | ताका उत्तर-सो भाईजी, प्रत्यक्ष ताकी अपेक्षा एक जाति नाही सम्यमान की अपेक्षा एक जाति है। चौथे वाले के मति श्रुतरूप सम्यज्ञान है और तेरहवे वाले के केवलरूप सम्यज्ञान है, बहुरि एकदेश सर्वदेश का तो अन्तर इतना ही है जो मति श्रुतवाला अमतिक वस्तुको अप्रत्यक्ष मूर्तिक वस्तुको भी प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष किञ्चित अनुक्रमसो जाने है। अर सर्वथा सर्वको केवलज्ञानी युगपत् जाने है वह परोक्ष जाने यह प्रत्यक्ष जाने, इतना विशेष है अर सर्व प्रकार एक ही जाति कहिए तो जैसे केवली युगपत प्रत्यक्ष अप्रयोजन [जेयको निर्विकल्प रूप जान तैसे ए भी जाने मो तोहै नाही, ताते प्रत्यक्ष परोक्ष मे विशेप जानना। उक्त च अष्टसहस्नी मध्ये-श्लोकस्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्वप्रकाशने । भेदसाक्षादसाक्षाच्च बह्मवस्त्वन्यतम भवेत् ॥ याका अर्थ-स्याद्वाद जो श्रुतज्ञान अर केवलज्ञान ते दोय सर्व तत्वन के प्रकाशनहारे हैं, विशेष इतना-केवलज्ञान प्रत्यक्ष है, ध्रुतज्ञान परोन है । वन्नु प से यह दोनो एक दूसरे से भिन्न नाही है । वहरि तुम निश्चय सम्यक्त्व का बाप अर व्यवहार सम्यक्त्वका स्वरूप लिया । . मुलतान दिगम्बर जैन समाज-इतिहास के आलोक में
SR No.010423
Book TitleMultan Digambar Jain Samaj Itihas ke Alok me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMultan Digambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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