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________________ अतीन्द्रिय सुखके वेता, प्रगटीये निर्मल बुद्ध । भविक नर धर्म करतां शिव सुख पावे, चहुं गति दुःख निवार । नर सुर संपत्ति सहजें मिलसी, धर्म विना जग फास । भविक नर जैनधर्म छे सार । * * * जिन चौवीस नमू सुखकारी, परम धर्म धन धारी जी जिन ये बारह भावन भावी, शिवपुर इच्छा नाहीं जी । दल त्रयका- जैन बल अनंता श्री विहरमान जयवंता । निश्चय व्यवहार वंदना मोरी कर्मकी टूटी डोरी जी ॥ परम्पराय मोटा उपकारी जैनधर्म धन धारी जी । बनारसीदास राजमल विख्याता, ज्ञानदान के दाता ॥ वर्द्धमान वाचन शुभ' अक्षया, धर्मसन्त मुझ भास्या जी बीजा उपकार मोटा कीना, संस्कृत वचन मुझ दीनाजी अक्षर अर्थ पुनि मात्र दोष जोई, मिथ्या दु.कृत होई जी छो अधको मै छ, भाख्या, तीक्षण जोजिन साखीजी ग्रीष्म ऋतु चौमासा होई, समके चतुर नर जोई जी । कृष्ण पक्ष पंचम शुद्ध वारा, त्रिदश ढाल अधिकारी जी । जिन चौबीस नमू सुखकारी । कवयित्री का डेगगाजीखान से सम्बन्ध था, इसलिये 2-3 स्थानो पर वहाँ के मन्दिर का भी उल्लेख किया है । वहा अध्यात्म सैली थी जिसमे भी मगल होना लिखा है । 1 मुलतान नगर मे बनारसीदास के अध्यात्म स्वरूप की पावन गंगा बरावर बहती रही । समयसार, प्रवचनसार, पचास्तिकाय जैसे ग्रन्थो की स्वाध्याय का प्रचार वढता गया । उनकी पाण्डुलिपियो को माँग बढती गयी और एक के पश्चात दूसरे ग्रन्थो की प्रतिलिपियों की जाती रही । इन 100 वर्षों मे मुलतान नगर अध्यात्म प्रेमियो का केन्द्र बना रहा और ओसवाल दिगम्बर जैन श्रावको ने प्रमुख रूप से धार्मिक चर्चाओ मे भाग लेना जारी रखा । मुलतान के श्रावको का आगरा से बराबर सम्बन्ध बना हुआ था । वे वहाँ जाते आते रहते थे । आगरा के कविराज भैया भगवतीदास से भी वे प्रभावित थे इसलिये उनके ग्रन्थो की भी प्रतिलिपियों करायी जाती थी । वास्तव मे सवत 1700 से 1800 तक का समय मुलतान नगर को दिगम्बर जैन समाज के लिये पूर्णत शान्ति एवं अध्यात्मिक विकास का समय रहा। इस अवधि मे दिगम्बर एव श्वेताम्बर दोनो ही पूर्ण सद्भावना के साथ धार्मिक चर्चाओ मे भाग लेते रहे । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के खत्तर खतरगच्छ 1. सखी डेरे दिगम्बर सैली मै नंगल मुलतान दिगम्बर जैन समाज - इतिहास के नालोक मे [ 23
SR No.010423
Book TitleMultan Digambar Jain Samaj Itihas ke Alok me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMultan Digambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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