SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 871
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट २ ७६१ समय घड़ेरूप पर्याय होती है, आगे पीछे नहीं होती और उस समय कुम्हार आदि निमित्त स्वयं उपस्थित होते ही हैं। ५-प्रत्येक द्रव्य स्वयं ही अपनी पर्यायका स्वामी है अतः उसकी पर्याय उस उस समयकी योग्यताके अनुसार स्वयं हुवा ही करती है। इस तरह प्रत्येक द्रव्यकी अपनी पर्याय प्रत्येक समय तत्तद् द्रव्यके हो आधोन है। किसी दूसरे द्रव्यके आधीन वह पर्याय नही है। ६-जीव द्रव्य त्रिकाल पर्यायोंका पिंड है। इसीलिये वह त्रिकाल वर्तमान पर्यायोंके योग्य है और प्रगट पर्याय एक समयकी है अतः उस उस पर्यायके स्वयं योग्य है । ७-यदि ऐसा न माना जावे तो एक पर्याय मात्र ही द्रव्य हो जायगा। प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायका स्वामी है अतः उसकी वर्तमानमें होनेवाली एक एक समयकी पर्याय है वह उस द्रव्यके आधीन है।। -जीवको पराधीन कहते है इसका यह अर्थ नहीं है कि पर द्रव्य उसे आधीन करता है अथवा पर द्रव्य उसे अपना खिलौना बनाता है किन्तु तत्तद् समयका पर्याय जीव स्वयं परद्रव्यकी पर्यायके आधीन हुआ करता है । यह मान्यता मिथ्या है कि परद्रव्य या उसकी कोई पर्याय जीवको कभी भी आश्रय दे सकती है उसे रमा सकती है, हैरान कर सकती है या सुखी दुःखी कर सकती है। -प्रत्येक द्रव्य सत् है अतः वह द्रव्यसे, गुणसे और पर्यायसे भी सत् है और इसीलिये वह हमेशा स्वतंत्र है। जीव पराधीन होता है वह भी स्वतंत्ररूपसे पराधीन होता है। कोई पर द्रव्य या उसको पर्याय उसे पराधीन या परतंत्र नहीं बनाते । १०-इस तरह श्री वीतराग देव ने संपूर्ण स्वतंत्रताकी मुनादी पीटी है-घोषणा की है।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy