SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 869
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट १ ७८६ हैं। उनमें एक त्रिकाली चैतन्यस्वभावभाव जो परमपारिणामिकभाव कहा जाता है-वह है । और दूसरा स्वकी वर्तमानपर्याय । पर्यायपरलक्ष्य करनेसे विकल्प (-राग ) दूर नहीं होता, इसलिये त्रिकालो चैतन्यस्वभावकी तरफ झुकनेके लिये सर्व वीतरागी शास्त्रोंकी, और श्री गुरुओंको आज्ञा है। अतः उसकी तरफ झुकना और अपनी शुद्धदशा प्रगट करना यही जीवका कर्तव्य है । इसीलिये तदनुसार ही सर्व जीवोंको पुरुषार्थ करना चाहिये । इस शुद्धदशा को ही मोक्ष कहते हैं। मोक्षका अर्थ निज शुद्धताकी पूर्णता अथवा सर्व समाधान है । और वही अविनाशी और शाश्वत-सच्चा सुख है, जीव प्रत्येक समय सच्चा शाश्वत सुख प्राप्त करना चाहता है और अपने ज्ञानके अनुसार प्रवृत्ति भी करता है किन्तु उसे मोक्षके सच्चे उपायकी खबर नहीं है इसलिये दुःख (बन्धन ) के उपायको सुखका ( मोक्षका ) उपाय मानता है। अतः विपरीत उपाय प्रति समय किया करता है। इस विपरीत उपायसे पीछे हटकर सच्चे उपायकी तरफ पात्र जीव झुकें और सम्पूर्ण शुद्धता प्रगट करें यह इस शास्त्रका हेतु है।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy