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________________ श्रध्याय १० उपसंहार ७७३ है, यह परतंत्रता बतलाती है । यह ध्यान रहे कि कर्म, शरीर इत्यादि कोई भी परद्रव्य आत्माको परतंत्र नहीं करते किंतु जीव स्वयं अज्ञानता से स्व को परतंत्र मानता है और पर वस्तुसे निजको लाभ या नुकसान होता है ऐसी विपरीत पकड़ करके परमें इष्ट-अनिष्टत्वकी कल्पना करता है । पराघीनता दुःखका कारण है । जीवको शरीरके ममत्वसे- शरीरके साथ एकत्वबुद्धिसे दुःख होता है । इसीलिये जो जीव शरीरादि परद्रव्यसे अपने को लाभ - नुकसान मानते है वे परतंत्र ही रहते हैं । कर्म या परवस्तु जीव को परतंत्र नही करती, किन्तु जीव स्वय परतन्त्र होता है । इस तरह जहां तक अपने अपराध, शुद्धभाव किंचित् भी हो वहीं तक कर्म-नोकर्म का संबंधरूप बघ है | ६. मुक्त होने के बाद फिर बंध या जन्म नहीं होता जीवके मिथ्यादर्शनादि विकारी भावोंका अभाव होनेसे कर्मका कारण- कार्य सम्बन्ध भी टूट जाता है । जानना - देखना यह किसी कर्म बन्धका कारण नही किन्तु परवस्तुनोंमें तथा राग-द्वेषमे आत्मीयता की भावना बंधका कारण होती है । मिथ्याभावनाके कारण जीवके ज्ञान तथा दर्शन ( श्रद्धान) को मिथ्याज्ञान तथा मिथ्यादर्शन कहते हैं । इस मिथ्यात्व आदि विकारभावके छूट जानेसे विश्वकी चराचर वस्तुनोंका जाननादेखना होता है; क्योंकि ज्ञान दर्शन तो जीवका स्वाभाविक असाधारण धर्म है । वस्तुके स्वाभाविक असाधारण धर्मका कभी नाश नही होता; यदि उसका नाश हो तो वस्तुका भी नाश हो जाय । इसीलिये मिथ्यावासनाके अभाव में भी जानना देखना तो होता है; किंतु अमर्यादित बघके कारण-कार्यका अभाव मिथ्यावासनाके अभावके साथ ही हो जाता है । कर्मके आनेके सर्व कारणोका अभाव होनेके बाद भी जानना - देखना होता है तथापि जीवके कर्मोंका बंध नही होता और कर्म बन्ध न होनेसे उसके फलरूप स्थूल शरीरका संयोग भी नही मिलता; इसीलिये उसके फिर ( देखो तत्त्वार्थसार पृष्ठ ३६४ ) जन्म नही होता |
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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