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________________ ७७२ मोक्षगास्त्र जीवके विकार भावको उपस्थितिमें कमरप हुआ गारते है । जहात जोय विकारी भाव करें वहां तक उसकी विकारदगा हुआ करती है और अन्य पुद्गल कर्मरूप होकर उसकी साथ बंधन रूप हुमा करते हैं; राप्रकार संसारमे कर्मशृङ्खला चलती रहती है। लेकिन ऐगा नहीं है fr-कर्म सदा कर्म ही रहे, अथवा तो कोई जीव रादा अमुकही कसि बन्ने हुए ही रहें, अथवा विकारी दशामे भी सर्व कर्म सवं जीवोंके घर जाते हैं और सर्व जीवमुक्त हो जाते है। ४-इस तरह अनादिकालीन कर्म शाला प्रतेक काल तक चलती ही रहती है, ऐसा देखा जाता है; परन्तु गृहलाओंका ऐसा नियम नहीं है कि जो अनादिकालीन हो वह अनन्त काल तक रहना ही चाहिए, क्योंकि शृङ्खला संयोगसे होती है और संयोगका किसी न किसी समय वियोग हो सकता है । यदि वह वियोग प्रांगिक हो तो यह गलला चाल रहती है, किन्तु जब उसका आत्यंतिक वियोग हो जाता है तब मला का प्रवाह टूट जाता है । जैसे शृङ्खला वलवान कारणों के द्वारा टूटती है. उसीप्रकार कर्मशृङ्खला अर्थात् संसार शृङ्खला भी ( संसाररूपी जंजीर ) जीवके सम्यग्दर्शनादि सत्य पुरुपार्थके द्वारा निर्मल नष्ट हो जाती है । विकारी शृङ्खलामें अर्थात् मलिन पर्यायमें अनन्तताका नियम नहीं है, इसीलिये जीव विकारी पर्यायका अभाव कर सकता है और विकारका अभाव करनेपर कर्मका संवध भी छूट जाता है और उसका कर्मत्व नष्ट होकर अन्यरूपसे परिणमन हो जाता है । ५. अब आत्माके बंधनकी सिद्धि करते हैं कोई जीव कहते हैं कि प्रात्माके वन्धन होता ही नही । उनकी यह मान्यता मिथ्या है, क्योंकि बिना बन्धनके परतन्त्रता नहीं होती। जैसे गाय भैंस आदि पशु जब बन्धनमें नहीं होते तब परतन्त्र नही होते; परतन्त्रता बन्धन की दशा बतलाता है, इसलिये आत्माके बन्धन मानना योग्य है आत्माके यथार्थ बन्धन अपने-निज विकारी भावका ही है, . उसका निमित्त पाकर स्वतः जड़कर्मका बन्धन होता है और उसके फलस्वरूप शरीरका संयोग होता है। शरीरके संयोगमें आत्मा रहती
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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