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________________ अध्याय ६ सूत्र ४५ ७३६ प्रश्न-उपशमंकी बात दर्शनमोहके क्षपण करनेवालेके बाद क्यों कही ? उत्तर-क्षपक का अर्थ क्षायिक होता है, यहां क्षायिक सम्यक्त्वकी बात है; और 'उपशमक' कहनेसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व युक्त उपशम श्रेणी वाले जीव समझना । क्षायिक सम्यग्दृष्टिसे उपशमश्रेणी वालेके असंख्यात गुरणी निर्जरा होती है, इसीलिये पहले क्षपककी बात की है और उसके बाद उपशमककी बात की है क्षायिक सम्यग्दर्शन चौथे, पाँचवें, छ8 और सातवे गुणस्थानमें प्रगट होता है और जो जीव चारित्रमोहका उपशम करने को उद्यमी हुये हैं उनके आठवाँ, नवमां और दशमा गुणस्थान होता है । (७) उपशमक जीवकी निर्जरासे ग्यारहवें उपशांतमोह गुणस्थान मे असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। (4) उपशांतमोहवाले जीवकी अपेक्षा क्षपक श्रेणीवालेके असंख्यात गुणी निर्जरा होती है । इस जीवके आठवां नवमां और दसमां गुणस्थान होता है। (E) क्षपकश्रेणीवाले जीवकी अपेक्षा बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान मे असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। (१०) बारहवे गुणस्थानकी अपेक्षा 'जिन' के ( तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानमें ) असंख्यातगुणी निर्जरा होती है । जिनके तीन भेद हैं (१) स्वस्थान केवली (२) समुद्घात केवली और (३) अयोग केवली। इन तीनोमे भी विशुद्धताके कारण उत्तरोत्तर असख्यात गुणी निर्जरा है। अत्यन्त विशुद्धताके कारण समुद्घात केवलीके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मकी स्थिति प्रायुकर्म के समान हो जाती है। इस सूत्रका सिद्धान्त इस सूत्रमे निर्जराके लिये प्रथम पात्र सम्यग्दृष्टि बतलाया गया है इसीसे यह सिद्ध होता है कि सम्यग्दर्शनसे ही धर्मका प्रारभ होता है ॥४॥
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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