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________________ ७३४ मोक्षशास्त्र ध्याते है" ऐसा प्र० सार गा० १६८ में कहा है वहाँ उनको पूर्ण अनुभवदशा दिखाना है ] ॥४४॥ यहाँ ध्यान तपका वर्णन पूर्ण हुआ। __ इस नवमें अध्यायके पहले अठारह सूत्रोंमें संवर और उसके कारणों का वर्णन किया। उसके बाद निर्जरा और उसके कारणोंका वर्णन प्रारंभ किया। वीतरागभावरूप तपसे निर्जरा होती है ( तपसा निर्जरा च सूत्र-३ ) उसे भेद द्वारा समझानेके लिये तपके बारह भेद बतलाये, इसके वाद छह प्रकारके अन्तरंग तपके उपभेदोंका यहाँ तक वर्णन किया। व्रत, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीपहजय, बारह प्रकारके तप आदि सम्बन्धी खास ध्यानमें रखने योग्य स्पष्टीकरण १-कितने ही जीव सिर्फ व्यवहारनयका अवलम्बन करते हैं उनके परद्रव्यरूप भिन्न साधनसाध्यभावकी दृष्टि है, इसीलिये वे व्यवहारमें ही खेद खिन्न रहते है । वे निम्नलिखित अनुसार होते हैं श्रद्धाके सम्बन्धमें-धर्मद्रव्यादि परद्रव्योंकी श्रद्धा करते हैं । ज्ञानके सम्बन्धमें-द्रव्यश्रुतके पठन पाठनादि संस्कारोसे अनेक प्रकारके विकल्पजालसे कलंकित चैतन्य वृत्तिको धारण करते है। चारित्रके संबंधों-यतिके समस्त व्रत समुदायरूप तपादि-प्रवृत्तिरूप कर्मकांडोंको अचलितरूपसे आचरते हैं, इसमे किसी समय पुण्यकी रुचि करते हैं, कभी दयावन्त होते हैं। दर्शनाचारके संबंध—किसी समय प्रशमता, किसी समय वैराग्य, किसी समय अनुकम्पा-दया और किसी समय आस्तिक्यमें वर्तता है; तथा शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि आदि भाव उत्पन्न न हों ऐसी शुभोपयोगरूप सावधानी रखते हैं; मात्र व्यवहारनयरूप उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना इन अंगोंकी भावना विचारते हैं और इस सम्बन्धी उत्साह वार वार बढ़ाते है।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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