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________________ अध्याय ६ सूत्र ४४ श्रुतके किसी एक वचनको छोड़कर अन्यका अवलम्बन करना तथा उसे छोड़कर किसी अन्यका अवलम्बन करना तथा उसे छोड़कर किसी अन्यका अवलम्बन करना सो व्यजनसंक्रान्ति है । योगसंक्रान्ति-काययोगको छोड़कर मनोयोग या वचनयोगको ग्रहण करना और उसे छोड़कर अन्य योगको ग्रहण करना सो योग संक्रान्ति है। यह ध्यान रहे कि जिस जीवके शुक्लध्यान होता है वह जीव निर्विकल्प दशामे हो है, इसीलिये उसे इस संक्रान्तिकी खबर नहीं है, किन्तु उस दशामें ऐसी पलटना होती है अर्थात् संक्रान्ति होती है वह केवलज्ञानी जानता है। ऊपर कही गई संक्रान्ति--परिवर्तनको वीचार कहते हैं। जहां तक यह वीचार रहता है वहाँ तक इस ध्यानको सवीचार (अर्थात् पहला प्रथक्त्ववितर्क ) कहते हैं । पश्चात् ध्यानमे दृढता होती है तब वह परिवर्तन रुक जाता है इस ध्यानको अवीचार ( अर्थात् दूसरा एकत्ववितर्क) कहते हैं। प्रश्न-क्या केवली भगवानके ध्यान होता है ? उत्तर--'एकाग्रचिता निरोध' यह ध्यानका लक्षण है। एक एक पदार्थका चितवन तो क्षायोपशमिक ज्ञानीके होता है और केवली भगवानके तो एक साथ सम्पूर्ण पदार्थो का ज्ञान प्रत्यक्ष रहता है। ऐसा कोई पदार्थ अवशिष्ट नही रहा कि जिसका वे ध्यान करें। केवली भगवान कृतकृत्य हैं, उन्हे कुछ करना बाकी नहीं रहा, अतएव उनके वास्तवमै ध्यान नहीं है । तथापि आयु पूर्ण होने पर तथा अन्य तीन कर्मोकी स्थिति पूर्ण होने पर योगका निरोध और कर्मोकी निर्जरा स्वयमेव होती है और ध्यानका कार्य भी योगका निरोध और कर्मोको निर्जरा होना है, इसीलिये केवली भगवानके ध्यानकी सदृश कार्य देखकर-उपचारसे उनके शुक्लध्यान कहा जाता है, यथार्थ में उनके ध्यान नही है [ "भगवान परम सुखको
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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