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________________ मोक्षशास्त्र (२) सम्यक विनय - पूज्य पुरुषोंका आदर करने पर वीतराग स्वरूपके लक्षके द्वारा अंतरंग परिणामोंकी जो शुद्धता होती है, उसे सम्यक् विनय कहते हैं । ७१२ (३) सम्यक् वैयावृत्य — शरीर तथा अन्य वस्तुनोंसे मुनियोंकी सेवा करने पर वीतराग स्वरूपके लक्षके द्वारा अंतरंग परिणामों की जो शुद्धता होती है सो सम्यक् वैयावृत्य कहते है । (४) सम्यक् स्वाध्याय - सम्यग्ज्ञानकी भावनायें आलस्य न करना- इसमें वीतराग स्वरूपके लक्षके द्वारा अंतरंग परिणामों की जो शुद्धता होती है सो सम्यक् स्वाध्याय है । (५) सम्यक् व्युत्सर्ग- बाह्य और आभ्यंतर परिग्रहके त्यागकी भावनामें वीतराग स्वरूपके लक्षके द्वारा अंतरंग परिणामों की जो शुद्धता होती है सो सम्यक् व्युत्सर्ग है । (६) सम्यक् ध्यान —— चित्तको चंचलताको रोककर तत्त्वके चितवन में लगना, इसमें वीतराग स्वरूपके लक्षके द्वारा अंतरंग परिणामोंकी जो शुद्धता होती है सो सम्यक् ध्यान है । ३ - सम्यग्दृष्टि ही ये छहो प्रकारके तप होते हैं । इन छहों प्रकार में सम्यग्दृष्टिके निज स्वरूपकी एकाग्रता से जितनी अंतरंग परिणामों की शुद्धता हो उतना ही तप है । [ जो शुभ विकल्प है उसे उपचारसे तप कहा जाता है, किन्तु यथार्थमें तो वह राग है; तप नहीं । ] अव अभ्यन्तर तपके उपभेद बताते हैं नवचतुर्दशपंचद्विभेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ॥२१॥ प्रयं - [प्राक ध्यानात् ] ध्यानसे पहले के पाँच तपके [ यथाक्रमं ] अनुक्रमसे [ नवचतुर्दश पंचद्विभेदाः ] नव, चार, दश, पाँच श्रौर दो भेद हैं अर्थात् सम्यक् प्रायश्चितके नव, सम्यक् विनयके चार, सम्यक् वैयावृत्य के दग, सम्यक् स्वाध्यायके पाँच और सम्यक् व्युत्सर्गके दो भेद हैं ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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