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________________ अध्याय ६ सूत्र १९-२० अनेक प्रकारके काय क्लेश करे, अधिक उपवास करे, शास्त्रोंके पढ़नेमें बहुत चतुर हो, मौनव्रत धारण करे इत्यादि सब कुछ करे, किंतु उसका यह सब वृथा है-संसारका कारण है, इनसे धर्मका अंश भी नहीं होता । जो जीव सम्यग्दर्शनसे रहित हो यदि वह जीव अनशनादि बारह तप करे तथापि उसके कार्यकी सिद्धि नहीं होती । इसलिये हे जीव ! आकुलता रहित समतादेवीका कुल मंदिर जो कि स्व का आत्मतत्त्व है, उसका ही भजन कर ॥ १६॥ (देखो नियमसार गाथा १२४ ) अब आभ्यंतर तपके ६ भेद बताते हैं प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्याना न्युत्तरम् ॥ २०॥ अर्थ-[ प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानानि ] सम्यक्पसे प्रायश्चित्त, सम्यक् विनय, सम्यक् वैयावृत्य, सम्यक् स्वाध्याय, सम्यक् व्युत्सर्ग और सम्यक् ध्यान [ उत्तरम् ] ये छह प्रकार का आभ्यन्तर तप है। नोट-इस सूत्र में 'सम्यक्' शब्दका अनुसन्धान इस अध्यायके चौथे सूत्रसे किया जाता है, यह प्रायश्चित्तादि छहों प्रकारमें लागू होता है। यदि 'सम्यक्' शब्दका अनुसन्धान न किया जावे तो नाटक इत्यादि सम्बन्धी अभ्यास करना भी स्वाध्याय तप ठहरेगा । परन्तु 'सम्यक्' शब्द के द्वारा उसका निषेध हो जाता है। टीका १-ऊपरके सूत्रकी जो टीका है वह यहां भी लागू होती है। २-सूत्रोमें कहे गये शब्दोंकी व्याख्या करते हैं (१) सम्यक् प्रायश्चित-प्रमाद अथवा अज्ञानसे लगे हुये दोषों की शुद्धता करनेसे वीतराग स्वरूपके पालंबनके द्वारा जो अंतरंग परिरणामोंकी शुद्धता होती है उसे सम्यक् प्रायश्चित्त कहते हैं।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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