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________________ १७०३ अध्याय ६ सूत्र १८ विहार आदि क्रिया करे उस कालमें भी उसके निर्जरा अधिक है इससे ऐसा समझना कि-बाह्य प्रवृत्तिके अनुसार निर्जरा नही है। (देखो मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३४१ ) ४. चारित्र का स्वरूप कितनेक जीव मात्र हिंसादिक पापके त्यागको चारित्र मानते है और महाव्रतादिरूप शुभोपयोगको उपादेयरूपसे ग्रहण करते है, किन्तु यह यथार्थ नहीं है। इस शास्त्रके सातवें अध्यायमें आस्रव पदार्थका निरूपण किया गया है, वहाँ महावत और अणुव्रतको प्रास्रवरूप माना है, तो वह उपादेय कैसे हो सकता है ? आस्रव तो बन्धका कारण है और चारित्र मोक्षका कारण है, इसलिये उन महाव्रतादिरूप आस्रवभावोंके चारित्रता सम्भव नही होती, किन्तु जो सर्व कषाय रहित उदासीन भाव है उसीका नाम चारित्र है। सम्यग्दर्शन होनेके बाद जीवके कुछ भाव वीतराग हुए होते हैं और कुछ भाव सराग होते हैं। उनमे जो अश वीतरागरूप है वही चारित्र है और वह सवरका कारण है । ( देखो मोक्ष. प्रकाशक पृष्ठ ३३७) ५. चारित्रमें भेद किसलिये वताये ? प्रश्न-जो वीतराग भाव है सो चारित्र है और वीतरागभाव तो एक ही तरहका है, तो फिर चारित्रके भेद क्यों बतलाये ? उत्तर-वीतरागभाव एक तरहका है परन्तु वह एक साथ पूर्ण प्रगट नही होता, किन्तु क्रम क्रमसे प्रगट होता है इसीलिये उसमें भेद होते हैं। जितने अंशमें वीतरागभाव प्रगट होता है उतने अंशमे चारित्र प्रगट होता है, इसलिये चारित्रके भेद कहे है । प्रश्न-यदि ऐसा है तो छ? गुणस्थानमें जो शुभभाव है उसे भी चारित्र क्यों कहते हो? । उत्तर-वहाँ शुभभावको यथार्थमें चारित्र नहीं कहा जाता, किंतु उस शुभभावके समय जिस अंशमे वीतरागभाव है, वास्तवमें उसे चारित्र कहा जाता है।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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