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________________ अध्याय ६ सूत्र १७-१८ ७०१ उसके इस अध्यायके ८ वें सूत्रमें कहे गये निर्जराका व्यवहार कैसे लागू होता है ? उचर-जीव अपने पुरुषार्थके द्वारा जितने अंशमे परीषह वेदन न करे उतने अंशमे उसने परीषह जय किया और इसीलिये उतने अंशमें सूत्र १३ से १६ तकमें कहे गये कर्मोकी निर्जरा की, ऐसा आठवें सूत्रके अनुसार कहा जा सकता है, इसे व्यवहार कथन कहा जाता है क्योंकि परवस्तु (कर्म) की साथके सम्बन्धका कितना अभाव हुआ, यह इसमें बताया गया है। इसप्रकार परीषहजयका कथन पूर्ण हुधा ॥१७॥ दूसरे सूत्रमे कहे गये संवरके ६ कारणोंमेसे यहाँ पांच कारणोंका वर्णन पूर्ण हुआ; अब अन्तिम कारण चारित्रका वर्णन करते है चारित्रके पाँच भेद सामायिकछेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराय यथाख्यातमिति चारित्रम् ॥१८॥ अर्थ--[ सामायिकछेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसापराय यथाख्यातं ] सामायिक छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसापराय और यथाख्यात [ इति चारित्रम् ] इस प्रकार चारित्रके ५ भेद हैं । टीका १. सूत्रमें कहे गये शब्दोंकी व्याख्या . .(१) सामायिक-निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञानकी एकाग्रता द्वारा समस्त सावध योगका त्याग करके शुद्धात्मस्वरूपमे अभेद होने पर शुभाशुभ भावोंका त्याग होना सो सामायिक चारित्र है । यह चारित्र छ8 से नवमें गुणस्थान तक होता है। (२) छेदोपस्थापना-कोई जीव सामायिक चारित्ररूप हुआ हो और उससे हटकर सावध व्यापाररूप होजाय, पश्चात् प्रायश्चित द्वारा उस सावध व्यापारसे उन्नत हुये दोषोको छेदकर आत्माको संयममे स्थिर करे सो
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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