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________________ ६६० मोक्षशास्त्र टीका १-~यद्यपि मोहनीयकर्मका उदय न होनेसे भगवानके क्षुधादिककी वेदना नही होती, इसीलिये उनके परीषह भी नहीं होती; तथापि उन परीषहोंके निमित्तकारणरूप वेदनीय कर्मका उदय विद्यमान है अतः वहाँ भी उपचारसे ग्यारह परीषह कही हैं। वास्तवमें उनके एक भी परीपह नही है। २ प्रश्न-यद्यपि मोहकर्मके उदयकी सहायताके अभावमें भगवान के क्षुधा आदिकी वेदना नही है तथापि यहाँ वह परीषह क्यों कही है ? उत्तर-यह तो ठीक है कि भगवानके क्षुधादिकी वेदना नही है किन्तु मोहकर्म जनित वेदनाके न होने पर भी द्रव्यकर्मकी विद्यमानता बतानेके लिये वहाँ उपचारसे परीषह कही गई हैं। जिस प्रकार समस्त ज्ञानावरण कर्मके नष्ट होनेसे युगपत् समस्त वस्तुओंके जाननेवाले केवलज्ञानके प्रभावसे उनके चिताका निरोधरूप ध्यान सम्भव नहीं है तथापि ध्यानका फल जो अवशिष्ट कर्मोको निर्जरा है उसकी सत्ता बतानेके लिये वहाँ उपचारसे ध्यान बतलाया है उसी प्रकार यहाँ ये परीषह भी उपचार से बतलाई हैं। प्रवचनसार गाथा १९८ मे कहा है कि भगवान परमसुख को ध्याते हैं। ३ प्रश्न-इस सूत्रमे नय विभाग किस तरहसे लागू होता है ? उत्तर-तेरहवें गुणस्थानमे ग्यारह परीषह कहना सो व्यवहारनय है । व्यवहारनयका अर्थ करनेका तरीका यो है कि 'वास्तव में ऐसा नही है किन्तु निमित्तादिकी अपेक्षासे वह उपचार किया है, निश्चयनयसे केवलज्ञानीके तेरहवें गुणस्थानमे परीषह नहीं होती। प्रश्न-व्यवहारनयका क्या दृष्टान्त है और वह यहाँ कैसे लागू होता है। उचर-'धीका घड़ा' यह व्यवहार नयका कथन है, इसका ऐसा अर्थ है कि 'जो घड़ा है सो मिट्टीरूप है, घोरूप नहीं है' ( देखो श्री समय
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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