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________________ अध्याय ६ सूत्र १०-११ ६८६ क्षुधा, तृषादि चौदह प्रकारकी वेदना नही होती, तो फिर ऐसा क्यों कहा कि इन गुणस्थानोमे परीषह विद्यमान है ? उत्तर-यह तो ठीक ही है कि वहाँ वेदना नहीं है किन्तु सामर्थ्य (शक्ति) की अपेक्षासे वहाँ चौदह परीषहोकी उपस्थिति कहना ठीक है। जैसे सर्वार्थसिद्धि विमानके देवोंके सातवें नरकमे जानेकी सामर्थ्य है किन्तु उन देवोके वहां जानेका प्रयोजन नही है तथा वैसा राग भाव नही इसीलिये गमन नहीं है, उसी प्रकार दशवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानमे चौदह परीषहोका कथन उपचारसे कहा है। प्रश्न-इस सूत्रमे नय विभाग किस तरह लागू होता है ? उत्तर-निश्चयनयसे दस, ग्यारह या बारहवें गुरणस्थानमें कोई भी परीषह नही हैं, किन्तु व्यवहारनयसे वहाँ चौदह परीषह है; व्यवहारनयसे हैं का अर्थ यह है कि यथार्थमे ऐसा नहीं है किन्तु निमित्तादिककी अपेक्षासे उनका उपचार किया है-ऐसा समझना । इस प्रकार जाननेका नाम ही दोनो नयोका ग्रहण है, किन्तु दोनों नयोके व्याख्यानको समान सत्यार्थ जानकर 'इस रूप भी है और इस रूप भी है' अर्थात् वहाँ परीषह हैं यह भी ठीक है और नहीं भी है यह भी ठीक ऐसे भ्रमरूप प्रवर्तनसे तो दोनो नयोंका ग्रहण नहीं होता। (देखो मोक्षमार्ग प्रकाशक देहली पृ० ३६६) साराश यह है कि वास्तवमे उन गुणस्थानोंमे कोई भी परीपह नही होती, सिर्फ उस चौदह प्रकारके वेदनीय कर्मका मंद उदय है, इतना बतानेके लिये उपचारसे वहाँ परीषह कही हैं किन्तु यह मानना मिथ्या है कि वहाँ जीव उस उदयमें युक्त होकर दुःखी होता है अथवा उसके वेदना होती है। अब तेरहवें गुणस्थानमें परीषह बतलाते हैं: एकादशजिने ॥११॥ अर्थ-[ जिने ] तेरहवें गुणस्थानमे जिनेन्द्रदेवके [ एकादश ] ऊपर बतलाई गईं चौदहमेसे अलाभ, प्रज्ञा और अज्ञान इन तीनको छोड़कर बाकीकी ग्यारह परीषह होती हैं । ८७
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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