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________________ अध्याय ६ सूत्र ६ ६८७ का अपूर्ण विकास हो तब ज्ञानावरणीयका उदय भी होता है और उस समय यदि जीव मोहमें युक्त हो तो जीवमे स्व के कारणसे विकार होता है; इसलिये यहाँ 'प्रज्ञा' का अर्थ मात्र 'ज्ञान' न करके 'ज्ञानमे होनेवाला मद' ऐसा करना । यहाँ प्रज्ञा शब्दका उपचारसे प्रयोग किया है किन्तु निश्चयार्थमें वह प्रयोग नही है ऐसा समझना । दूसरी परीषहके सम्बन्धमें कही गई समस्त बातें यहां भी लागू होती है । (८) ज्ञानकी अनुपस्थिति ( गैरमौजूदगी ) का नाम अज्ञान है, यह ज्ञानकी अनुपस्थिति किसी बंधका कारण नही है किन्तु यदि जीव उस अनुपस्थितिको निमित्त बनाकर मोह करे तो जीवमे विकार होता है। अज्ञान तो ज्ञानावरणीकर्मके उदयको उपस्थिति बतलाता है । परद्रव्य बध के कारण नही कितु स्वके दोष-अपराध बधका कारण है । जीव जितना राग द्वेष करता है, उतना बंध होता है। सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व मोह नही होता किन्तु चारित्रकी अस्थिरतासे राग द्वेष होता है। जितने अंशमें राग-दूर करे उतने अंशमें परीषह जय कहलाता है। (8) अलाभ और अदर्शन परीषहमें भी उपरोक्त प्रमाणानुसार अर्थ समझना, फर्क मात्र इतना है कि अदर्शन यह दर्शनमोहनीयकी मौजूदगी बतलाती है और अलाभ अन्तराय कर्मकी उपस्थिति बतलाता है। कर्मका उदय, प्रदर्शन या अलाभ यह कोई बधका कारण नही है। जो अलाभ है सो परद्रव्यका वियोग ( अभाव ) बतलाता है, परतु यह जीवके कोई विकार नहीं करा सकता, इसलिये यह बधका कारण नहीं है। (१०) चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये छहों शरीर और उसके साथ सम्बन्ध रखनेवाले परद्रव्योंकी अवस्था हैं। वह मात्र वेदनीयका उदय बतलाता है, किन्तु यह किसी भी जीवके विक्रिया-विकार उत्पन्न नही कर सकता ॥ ६ ॥ __ बावीस परीषहोंका वर्णन किया, उनमेंसे किस गुणस्थानमें कितनी परीषह होती हैं, यह वर्णन करते हैं:
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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