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________________ ६८६ मोक्षशास्त्र और जितने अंशमें अशुद्धता है उतने अंश में बंध है । साता वेदनीयका उदय जीवके कोई विक्रिया - विकार उत्पन्न नही करते । किसी भी कर्मका उदय शरीर तथा शब्दादि नोकर्मका प्रतिकूल संयोग जीवको विकार नहीं कराते । ( देखो समयसार गाथा ३७२ से ३८२ ) (३) शीत और उष्ण ये दोनों शरीर के साथ सम्बन्ध रखनेवाले बाह्य जड़ द्रव्योंकी अवस्था हैं और दशमशक शरीर के साथ सम्बन्ध रखने वाले जीव- पुद्गल संयोगरूप तियंचादि जीवोके निमित्तसे हुई शरीरकी अवस्था है; यह संयोग या शरीरको अवस्था जीवके दोष का कारण नहीं किंतु शरीरके प्रति स्व का ममत्व भाव ही दोषका कारण है । शरीर आदि तो परद्रव्य है और जीवको विकार पैदा नही कर सकते अर्थात् ये परद्रव्य जीवको लाभ या नुकसान [- गुरण या दोप ] उत्पन्न नही कर सकते । यदि वे परद्रव्य जीवको कुछ करते हों तो जीव कभी मुक्त हो ही नहीं सकता । ( ४ ) नाग्न्य अर्थात् नग्नत्व शरीरकी अवस्था है । शरीर अनन्त जब परद्रव्यका स्कंध है। एक रजकरण दूसरे रजकणका कुछ कर नहीं सकते तथा रजकण जीवको कुछ कर नहीं सकते, तथापि यदि जीव विकार करे तो वह उसकी अपनी असावधानी है । यह असावधानी न होने देना सो परीषहजय है । चारित्र मोहका उदय जीवको विकार नही करा सकता क्योकि वह भी परद्रव्य है । (५) अरति यानि द्वेष, उनमें जीवकृत दोष चारित्र गुणकी अशुद्ध अवस्था है और द्रव्यकर्म पुद्गल की अवस्था है । अरतिके निमित्तरूप माने गये सयोगरूप कार्य यदि उपस्थित हों तो वे उस जीवके अरति पैदा नही करा सकते, क्योकि वह तो परद्रव्य है, किन्तु जब जोव स्वयं अरति करे तव चारित्र मोहनीय कर्मको विपाक उदयरूप निमित्त कहा जाता है । (६) यही नियम स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कारपुरस्कार इन पाँच परीषहोमे भी लागू होता है । (७) जहाँ प्रज्ञा परीषह कही है वहा ऐसा समझना कि प्रज्ञा तो ज्ञानकी दशा है, वह कोई दोष का कारण नही है किंतु जब जीवके ज्ञान
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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