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________________ ६८२ मोक्षशास्त्र है। उनके शरीरपर वनादिक भी नहीं होते, मात्र एक शरीर उपकरण है । पुनश्च अनशन, अवमौदर्य (भूखसे कम खाना) वृत्तिपरिसंख्यान (आहारको जाते हुए घर वगैरहका नियम करना) आदि तप करते हुए दो दिन, चार दिन, आठ दिन, पक्ष महीना आदि व्यतीत होजाते हैं, और यदि योग्य कालमें, योग्य क्षेत्रमें अंतराय रहित शुद्ध निर्दोष आहार न मिले तो वे भोजन ( भिक्षा ) ग्रहण नहीं करते और चित्तमें कोई भी विषाद-दुःख या खेद नहीं करते किंतु धैर्य धारण करते है। इस तरह क्षुधारूपी अग्नि प्रज्वलित होती है तथापि धैर्यरूपी जलसे उसे शांत कर देते हैं और राग- - द्वेष नही करते ऐसे मुनियोंको क्षुधा-परीषह सहनी योग्य है। असाता वेदनीय कर्मकी उदीरणा हो तभी क्षुधा-भूख उत्पन्न होती है और उस वेदनीय कर्मकी उदीरणा छ8 गुणस्थान पर्यंत ही होती है उससे ऊपरके गुणस्थानों में नहीं होती। छठे गुणस्थानमें रहनेवाले मुनिके क्षुधा उत्पन्न होती है तथापि वे माकुलता नही करते और आहारा नही लेते किंतु धैर्यरूपो जलसे उस क्षुधाको शांत करते है तव उनके परीषह जय करना कहलाता है । छ8 गुणस्थानमें रहनेवाले मुनिके भी इतना पुरुषार्थ होता है कि यदि योग्य समय निर्दोष भोजनका योग न बने तो आहारका विकल्प तोड़कर निर्विकल्प दशामें लोन हो जाते है तब उनके परीषह जय कहा जाता है। (२) तृषा-प्यासको धैर्यरूपी जलसे शांत करना सो तृषा परीषह जय है। (३) शीत-ठंडको शांतभावसे अर्थात् वीतरागभावसे सहन करना सो शीत परीषह जय है । (४) उष्ण-गर्मीको शांतभावसे सहन करना अर्थात् ज्ञानमें ज्ञेयरूप करना सो उष्ण परीषह जय है । (५) दंशमशक-डांस, मच्छर, चीटी, बिच्छू इत्यादिके काटनेपर शांत भाव रखना सो दंशमशक परीषह जय है।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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