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________________ अध्याय ६ सूत्र ६८१ २-अज्ञानी ऐसा मानते हैं कि परीषह सहन करना दुःख है किंतु ऐसा नही है; 'परीपह सहन करने का अर्थ दुःख भोगना नही होता। क्योकि जिस भावसे जीवके दुख होता है वह तो प्रार्तध्यान है और वह पाप है, उसीसे अशुभवंधन है और यहाँ तो सवरके कारणोका वर्णन चलरहा है । लोगोको अपेक्षासे वाह्य सयोग चाहे प्रतिकूल हो या अनुकूल हो तथापि राग या द्वेप न होने देना अर्थात् वीतराग भाव प्रगट करनेका नाम ही परीपह जय है अर्थात् उसे ही परोपह सहन किया कहा जाता है। यदि अच्छे बुरेका विकल्प उठे तो परीषह सहन करना नही कहलाता, किन्तु रागद्वेष करना कहलाता है। राग द्वेषसे कभी संवर होता ही नही किन्तु बंध ही होता है । इसलिये ऐसा समझना कि जितने अशमे वीतरागता है उतने अंशमे परीपद् जय है और यह परीषहजय सुख शातिरूप है। लोग परीपहजयको दुख कहते हैं सो असत् मान्यता है। पुनश्च अज्ञानी ऐसा मानते हैं कि पार्श्वनाथ भगवान और महावीर भगवानने परीषहके बहुत दुःख भोगे; परन्तु भगवान तो स्व के शुद्धोपयोग द्वारा आत्मानुभवमे स्थिर थे और स्वात्मानुभवके शांत रसमे झूलते थे-लीन थे इसीका नाम परीषह जय है। यदि उस समय भगवानके दुख हुमा हो तो वह द्वेष है और द्वेपसे वध होता किंतु सवर-निर्जरा नहीं होती। लोग जिसे प्रतिकूल मानते हैं ऐसे संयोगोमें भी भगवान निज स्वरूपसे च्युत नही हुये थे इसो. लिये उन्हे दुःख नही हुआ किन्तु सुख हुमा और इसोसे उसके सवर-निर्जरा हुई थी। यह ध्यान रहे कि वास्तवमें कोई भी संयोग अनुकूल या प्रतिकूलरूप नहीं है, किन्तु जीव स्वय जिस प्रकारके भाव करता है उसमें वैसा आरोप किया जाता है और इसीलिये लोग उसे अनुकूल संयोग या प्रतिक्कल सयोग कहते हैं। ३-बावीस परीपह जयका स्वरूप (१) क्षुधा-क्षुधा परीषह सहन करना योग्य है, साघुरोका भोजन तो गृहस्थ पर ही निर्भर है, भोजनके लिये कोई वस्तु उनके पास नहीं होती, वे किसी पात्रमे भोजन नहीं करते किंतु अपने हाथमे ही भोजन करते
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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