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________________ मध्याय ६ सूत्र ७ ६७३ (४) एकत्वानुप्रेक्षा — जीवन, भरण-संसार और मोक्ष आदि दशाओं मे जीव स्वयं प्रकेला ही है, स्वयं स्वसे ही विकार करता है, स्वयं स्वसे ही धर्म करता है, स्वयं स्वसे ही सुखी दुःखी होता है । जीवमें पर द्रव्योंका अभाव है इसलिये कर्म या पर द्रव्य पर क्षेत्र, पर कालादि जीवको कुछ भी लाभ या हानि नही कर सकते - ऐसा चितवन करना सो एकत्व अनुप्रेक्षा है । मैं एक हैं, ममता रहित है, शुद्ध हूँ, ज्ञान दर्शन लक्षणवाला हूँ, कोई अन्य परमाणुमात्र भी मेरा नही है, शुद्ध एकत्व ही उपादेय है ऐसा चितवन करना सो एकत्व भावना है । (५) अन्यत्वानुप्रेक्षा - प्रत्येक श्रात्मा और सर्व पदार्थ सदा भिन्नभिन्न है, वे प्रत्येक अपना-अपना कार्य करते है । जीव पर पदार्थोका कुछ कर नही सकते और पर पदार्थ जीवका कुछ कर नही सकते । जीवके विकारी भाव भी जीवके त्रिकालिक स्वभावसे भिन्न हैं, क्योकि वे जीवसे अलग हो जाते है | विकारी भाव चाहे तीव्र हो या मन्द तथापि उससे आत्माको लाभ नही होता । श्रात्माको परद्रव्योसे और विकारसे पृथकत्व है ऐसे तत्त्वज्ञानकी भावना पूर्वक वैराग्यकी वृद्धि होनेसे अन्तमे मोक्ष होता है - इसप्रकार चितवन करना सो अन्यत्व अनुप्रेक्षा है । आत्मा ज्ञान दर्शन स्वरूप है और जो शरीरादिक बाह्य द्रव्य हैं वे सब श्रात्मा से भिन्न है । परद्रव्य छेदा जाय या भेदा जाय, या कोई ले जाय अथवा नष्ट हो जाय अथवा चाहे वैसा ही रहे किन्तु परद्रव्यका परिग्रह मेरा नही है - ऐसा चितवन करना सो अन्यत्व भावना है । (६) अशुचित्व अनुप्रेक्षा - शरीर स्वभावसे हो अशुचिमय है श्रीर जीव ( आत्मा ) स्वभावसे ही शुचिमय ( शुद्ध स्वरूप ) है; शरीर रुधिर, मांस, मल आदिसे भरा हुआ है, वह कभी पवित्र नही हो सकता; इत्यादि प्रकारसे आत्माको शुद्धताका ओर शरीरकी अशुद्धताका ज्ञान करके शरीरका ममत्व तथा राग छोड़ना और निज प्रात्मा के लक्षसे शुद्धिको वढ़ाना । ८५
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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