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________________ ६७२ मोक्षशास्त्र ३-बारह भावनाओंका स्वरूप (१) अनित्यानुप्रेक्षा-दृश्यमान, संयोगी ऐसे शरीरादि समस्त पदार्थ इन्द्रधनुष, बिजली अथवा पानीके बुदबुदेके समान शीघ्र नाश हो जाते हैं, ऐसा विचार करना सो अनित्य अनुप्रेक्षा है। शुद्ध निश्चयसे आत्माका स्वरूप देव, असुर और मनुष्यके वैभवादिकसे रहित है, आत्मा ज्ञानस्वरूपी सदा शाश्वत है और संयोगी भाव अनित्य है-ऐसा चितवन करना सो अनित्य भावना है। (२) अशरणानुप्रेक्षा--जैसे निर्जन वनमे भूखे सिहके द्वारा पकड़े हुये हिरणके बच्चेको कोई शरण नही है, उसी प्रकार संसारमें जीवको कोई शरणभूत नही है। यदि जीव स्वयं स्व के शरणरूप स्वभावको पहिचानकर शुद्धभावसे धर्मका सेवन करे तो वह सभी प्रकारके दुःखसे बच सकता है, अन्यथा वह प्रतिसमय भावमरणसे दु:खी है-ऐसा चितवन करना सो अशरण अनुप्रेक्षा है। आत्मामे ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यकतप-रहते हैं इससे आत्मा ही शरणभूत है और इनसे पर ऐसे सब अशरण हैं-ऐसा चितवन करना वह अशरण भावना है । (३) संसारानुप्रेक्षा-इस चतुर्गतिरूप संसारमें भ्रमण करता हुआ जीव जिसका पिता था उसीका पुत्र, जिसका पुत्र था उसीका पिता, जिसका स्वामी था उसीका दास, जिसका दास था उसीका स्वामी हो जाता है अथवा वह स्वयं स्व का ही पुत्र हो जाता है, खी, धन, देहादिकको अपना संसार मानना भूल है, जड़ कर्म जीवको संसारमें रुलानेवाला नहीं है। इत्यादि प्रकार से ससारके स्वरूपका और उसके कारणरूप विकारी भावों के स्वरूपका विचार करना सो संसार अनुप्रेक्षा है। यद्यपि आत्मा अपनी भूलसे अपने में राग-द्वेष-अज्ञानरूप मलिन भावोंको उत्पन्न करके संसाररूप घोर वनमे भटका करती है-तथापि निश्चय नयसे आत्मा-विकारी भावोसे और कर्मोसे रहित है-ऐसा चितवन करना सो संसार भावना है।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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