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________________ ६४२ मोक्षशास्त्र मिथ्यात्वप्रकृति तथा सम्यक्त्व मोहनीयप्रकृति इन दो प्रकृतियोंका वन्ध नहीं होता अतः इन दो को कम करनेसे भेदविवक्षासे १८ और अभेद विवक्षासे ८२ पापप्रकृतियोंका बन्ध होता है, परन्तु इन दोनों प्रकृतियोंकी सत्ता तथा उदय होता है इसीलिये सत्ता और उदय तो भेद विवक्षासे १०० तथा अभेद विवक्षासे ८४ प्रकृतियोंका होता है। २-वर्णादिक चार अथवा उनके भेद गिने जावे तो २० प्रकृतियां हैं, ये पुण्यरूप भी हैं और पापरूप भी है इसीलिये ये पुण्य और पाप दोनोंमें गिनी जाती हैं। ३-इस सूत्रमें आये हुये शब्दोंका अर्थ श्री जैनसिद्धान्त प्रवेशिकामें से देख लेना। उपसंहार ___इस अध्यायमें बन्धतत्त्वका वर्णन है। पहले सूत्र में मिथ्यात्वादि पांच विकारी परिणामोंको बन्धके कारणरूपसे बताया है, इनमें पहला मिथ्यादर्शन बतलाया है क्योंकि इन पांच कारणोंमें संसारका मूल मिथ्यादर्शन है । ये पांचों प्रकारके जीवके विकारी परिणामोंका निमित्त पाकर मात्माके एक एक प्रदेशमें अनन्तानन्त कार्माणवर्गणारूप पुद्गल परमाणु एक क्षेत्रावगाहरूपसे बन्धते हैं, यह द्रव्यबन्ध है। - २-बन्धके चार प्रकार वर्णन किये हैं। इनमें ऐसा भी बतलाया है कि कर्मबन्ध जीवके साथ कितने समय तक रहकर फिर उसका वियोग होता है । प्रकृतिबन्ध में मुख्य पाठ भेद होते हैं, इनमेंसे एक मोहनीय प्रकृति ही नवीन कर्म बन्धमें निमित्त है। ३-वर्तमान गोचर जो देश हैं, उनमें कोई भी स्थानमें ऐसा स्पष्ट और वैज्ञानिक ढंगसे या न्याय पद्धतिसे जीवके विकारी भावोंका तथा उसके निमित्तसे होनेवाले पुद्गलबन्धके प्रकारोंका स्वरूप, और जीवके शुद्धभावोंका स्वरूप जैनदर्शनके सिवाय दूसरे किसी दर्शनमें नही कहा गया और इसप्रकारका नवतत्त्वके स्वरूपका सत्य कथन सर्वज्ञ वीतरागके बिना
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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