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________________ अध्याय ८ सूत्र २५-२६ ६४१ (५३) उच्छवास (५४) आतप (५५) उद्योत (५६) प्रशस्त विहायोगति (५७) त्रस (५८) बादर, (५६) पर्याप्ति (६०) प्रत्येक शरीर (६१)स्थिर (६२) शुभ (६३) सुभग (६४) सुस्वर (६५) आदेय (६६) यशःकीर्ति (६७) निर्माण और (६८) तीर्थंकरत्व । भेद विवक्षासे ये ६८ पुण्यप्रकृति है और अभेद विवक्षासे ४२ पुण्यप्रकृति हैं, क्योंकि वर्णादिकके १६ भेद, शरीर में अन्तर्गत ५ बंधन और ५ सघात इस प्रकार कुल २६ प्रकृतियां घटानेसे ४२ प्रकृतियां रहती है। २-पहले ११ वें सूत्र में नामकर्मकी ४२ प्रकृति बतलाई हैं उनमें गति, जाति, शरीरादिकके उपभेद नही बतलाये; परन्तु पुण्य प्रकृति और पापप्रकृति ऐसे भेद करनेसे उनके उपभेद आये बिना नहीं रहते ॥ २५ ॥ अब पाप प्रकृतियां बतलाते हैं: अतोऽन्यत्पापम् ॥ २६ ॥ अर्थ-[प्रतः अन्यत्] इन पुण्य प्रकृतियोसे अन्य अर्थात्-असातावेदनीय, अशुभ प्रायु, अशुभ नाम और अशुभ गोत्र | पापम् ] ये पाप प्रकृतियां है। टीका १-पाप प्रकृतियाँ १०० हैं जो निम्नप्रकार हैं: ४७-घातिया कर्मोकी सर्व प्रकृतियां, ४८-नीच गोत्र, ४६-असातावेदनीय, ५०-नरकायु, [ नामकर्मको ५० ] १-नरकगति, २-नरकगत्यानुपूर्वी, ३-तिर्यंचगति, ४-तियंचगत्यानुपूर्वी, ५-८-एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रिय तक चार जाति, ६ से १३-पाच संस्थान, (१४-१८) पांच संहनन, १९३८-वर्णादिक २० प्रकार ३६-उपघात, (४०) अप्रशस्त विहायोगति, ४१-स्थावर, ४२-सूक्ष्म, ४३-अपर्याप्ति, ४४-साधारण, ४५-अस्थिर ४६-अशुभ, ४७-दुर्भग, ४८-दुःस्वर, ४६-अनादेय और ५०-अयश.कीर्ति । भेद विवक्षासे ये सब १०० पापप्रकृतियां हैं और अभेद विवक्षा से ८४ हैं। क्योंकि वर्णादिकके १६ उपभेद घटानेसे ८४ रहते हैं। इनमेसे भी सम्यक
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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