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________________ ६१८ मोक्षशास्त्र दूर करे तब स्वयं ही ज्ञानो, धर्मी होता है, ईश्वर ( सिद्ध ) तो उसका ज्ञाता दृष्टा है । ( २ ) विपरीत मिथ्यात्व- -१. आत्माका स्वरूपको तथा देव गुरु धर्मके स्वरूपको अन्यथा माननेकी रुचिको विपरीत मिथ्यात्व कहते हैं । जैसे - १. शरीरको आत्मा मानना; सर्वज्ञ वीतराग भगवानको ग्रासाहार, रोग, उपसर्ग, वस्त्र, पात्र, पाटादि सहित और क्रमिक उपयोग सहित मानना, अर्थात् रोटी आदि खानेवाला, पानी श्रादि पीनेवाला, बीमार होना, दवाई लेना, निहारका होना इत्यादि दोप सहित जीवको परमात्मा, अर्हतदेव, केवलज्ञानी मानना । २. वस्त्र पात्रादि सहितको निर्ग्रन्थ गुरु मानना, स्त्री का शरीर होनेपर भी उसे मुनिदशा और उसो भवसे मोक्ष मानना, सती स्त्री को पांच पतिवाली मानना । ३ - गृहस्थदशा में केवलज्ञानकी उ पत्ति मानना । ४ - सर्वज्ञ- वीतराग दशा प्रगट होनेपर भी वह छद्मस्यगुरुकी वैयावृत्य करे ऐसा मानना, ५. छट्टो गुणस्थानके ऊपर भी वंद्यवंदक भाव होता है और केवली भगवान को छद्मस्थ गुरुके प्रति, चतुर्विव संघ अर्थात् तीर्थं प्रति या अन्य केवलीके प्रति वंद्यवंदकभाव मानना, ६. मुनिदशा में वस्त्रोंको परिग्रहके रूपमें न मानना अर्थात् वस्त्र सहित होनेपर भी मुनिपद और अपरिग्रहित्व मानना, ७. वस्त्रके द्वारा संयम और चारित्रका अच्छा साधन हो सकता है ऐसी जो मान्यताएँ हैं सो विपरीत मिथ्यात्व है । ८. सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेसे पहले और बादमें छट्टो गुणस्थान तक जो शुभभाव होता है, उस शुभभावमे भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न व्यक्तियोके भिन्न २ पदार्थ निमित्त होते है, क्योंकि जो शुभभाव है सो विकार है और वह परालंबनसे होता है । कितने ही जीवोंके शुभरागके समय वीतरागदेवकी तदाकार प्रतिमाके दर्शन पूजनादि निमित्तरूपसे होते हैं । वीतरागी प्रतिमाका जो दर्शन पूजन है सो भी राग है, परन्तु किसी भी जीवके शुभरागके समय वीतरागी प्रतिमाके दर्शन पूजनादिका निमित्त ही न हो ऐसा मानना सो शुभभावके स्वरूपकी विपरीत मान्यता होनेसे विपरीत मिथ्यात्व है ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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