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________________ अध्याय ८ सूत्र १ ६१७ न हो या कुछ भी परीक्षा किये विना-धर्म की श्रद्धा करना सो अज्ञान मिथ्यात्व है । जैसे-पशुवधमें अथवा पाप में धर्म मानना सो अज्ञान मिथ्यात्व है। (५) विनय मिथ्यात्व-समस्त देवको तथा समस्त धर्ममतोंको समान मानना सो विनय मिथ्यात्व है। ८-गृहीतमिथ्यात्वके ५ भेदोंका विशेष स्पष्टीकरण (१) एकांत मिथ्यात्व-प्रात्मा, परमाणु आदि सर्व पदार्थका स्वरूप अपने-अपने अनेक धर्मोसे परिपूर्ण है ऐसा नही मानकर वस्तुको सर्वथा अस्तिरूप, सर्वथा नास्तिरूप, सर्वथा एकरूप, सर्वथा अनेकरूप, सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य, गुरण पर्यायोसे सर्वथा अभिन्न, गुरण पर्यायोंसे सर्वथा भिन्न इत्यादि रूपसे मानना सो एकांत मिथ्यात्व है। पुनश्च काल ही सब करता है, काल ही सबका नाश करता है, काल ही फल फूल मादि उत्पन्न करता है, काल ही संयोग वियोग करता है, काल ही धर्मको प्राप्त कराता है, इत्यादि मान्यता मिथ्या है, यह एकात मिथ्या है। निरन्तर प्रत्येक वस्तु स्वयं अपने कारणसे अपनी पर्यायको धारण करती है, यही उस वस्तुका स्वकाल है और उस समय वर्तनेवाली जो कालद्रव्यकी पर्याय ( समय ) है सो निमित्त है, ऐसा समझना सो यथार्थ समझ है और इसके द्वारा एकांत मिथ्यात्वका नाश होता है। ___ कोई कहता है कि-प्रात्मा तो अज्ञानी है, प्रात्मा अनाथ है, आत्मा के सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, ज्ञानित्व, पापीपन, धमित्व, स्वर्गगमन, नरकगमन इत्यादि सब ईश्वर करता है, ईश्वर संसार का कर्ता है, हर्ता भी ईश्वर है, ईश्वरसे ही संसारकी उत्पत्ति स्थिति और प्रलय होती है, इत्यादि प्रकारसे ईश्वर कर्तृत्वकी कल्पना करता है सो मिथ्या है। ईश्वरत्व तो आत्मा की सम्पूर्ण शुद्ध (सिद्ध ) दशा है । आत्मा निज स्वभावसे ज्ञानी है किन्तु अनादिसे अपने स्वरूपको विपरीत मान्यताके कारण स्वयं अपनी पर्यायमे अज्ञानीपन, दुःख, जीवन, मरण, लाभ, अलाभ, पापीपन आदि प्राप्त करता है, और जब स्वयं अपने स्वरूपकी विपरीत मान्यता ७८
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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