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________________ ६१२ मोक्षशास्त्र (२) यह जीव स्वयं जिसप्रकार है उसीप्रकार अपने को नहीं मानता किन्तु जैसा नही है वैसा मानता है सो मिथ्यादर्शन है । जीव स्वयं अमूर्तिक प्रदेशोंका पुज, प्रसिद्ध ज्ञानादि गुरगोंका धारक, अनादिनिधन वस्तुरूप है, तथा शरीर मूर्तिक पुल द्रव्योंका पिंड प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणोंसे रहित, नवीन ही जिसका संयोग हुमा है ऐसा यह शरीरादि पुद्गल जो कि स्व से पर है-इन दोनोंके संयोगरूप मनुष्य तियंचादि अनेक प्रकार की अवस्थायें होती हैं, इसमे यह मूढ़ जीव निजत्व धारण कर रहा है, स्व-पर का भेद नही कर सकता; जिस पर्यायको प्राप्त हुमा है उसे ही निजरूपसे मानता है । इस पर्यायमें (१) जो ज्ञानादि गुण हैं वे तो निजके गुण हैं (२) जो रागादिकभाव होते है वे विकारीभाव हैं, तथा (३) जो वर्णादिक है वे निजके गुण नही किंतु शरीरादि पुलके गुण हैं और (४) शरीरादिमें भी वर्णादिका तथा परमाणुरोका परिवर्तन प्रथक् २ रूपसे होता है, ये सब पुद्गलकी अवस्थायें है; यह जीव इन सभी को निजरूपऔर निजाधीन मानता है; स्वभाव और परभावका विवेक नहीं करता; पुनश्च स्व से प्रत्यक्ष भित्र धन कुटुम्बादिकका संयोग होता है वे अपने अपने प्राधीन परिणमते हैं इस जीवके आधीन होकर नही परिणमते तथापि यह जीव उसमें ममत्व करता है कि ये सब मेरे हैं परन्तु ये किसी भी प्रकारसे इसके नहीं होते, यह जीव मात्र अपनी भूलसे ( मिथ्या मान्यतासे ) उसे अपना मानते हैं। (३) मनुष्यादि अवस्था में किसी समय देव-गुरु-शाख अथवा धर्म का जो अन्यथा कल्पित स्वरूप है उसकी तो प्रतीति करता है किन्तु उनका जो यथार्थ स्वरूप है उसका ज्ञान नहीं करता। (४) जगत्की प्रत्येक वस्तु अर्थात् प्रत्येक द्रव्य अपने अपने आधीन परिणमते हैं, किन्तु यह जीव ऐसा नही मानता और यों- मानता है कि स्वयं उसे परिणमा सकता है अथवा किसी समय आंशिक परिणमन करा सकता है। ऊपर कही गई सब मान्यता मिथ्याष्टिकी है। स्वका और परद्रव्योंका जैसा स्वरूप नहीं है वैसा मानना तथा जैसा है वैसा न मानना सो
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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