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________________ मज्याय ७ सूत्र ३८ ५९६ यदि दूसरेके लाभमें निमित्त हो तब यों कहा जाता है कि परका उपकार हुआ, वास्तवमें अनुग्रह स्व का है, पर तो निमित्तमात्र है। धन इत्यादिके त्यागसे यथार्थरीत्या स्व के शुभभावका अनुग्रह है, क्योंकि इससे अशुभभाव रुकता है और स्व के लोभ कषायका आशिक त्याग होता है । यदि वह वस्तु (धन आदि ) दूसरेके लाभका निमित्त हो तो उपचारसे ऐसा कहा जाता है कि दूसरे का उपकार हुमा, किंतु वास्तव में दूसरे का जो उपकार हुआ है वह उसके भावका है। उसने अपनी आकुलता मंद की इसीलिये उसके उपकार हुआ, किंतु यदि माकुलता मंद न करे नाराजी क्रोध करे अथवा लोलुपता करके आकुलता बढावे तो उस के उपकार नही होता । प्रत्येक जीवके अपनेमे ही स्वकीय भावका उपकार होता है। परद्रव्यसे या पर मनुष्यसे किसी जीवके सचमुच तो उपकार नहीं होता। २-श्रीमुनिराजको दान देने के प्रकरणमे यह सूत्र कहा गया है । मुनिको आहारका और धर्मके उपकरणोंका दान भक्तिभावपूर्वक दिया जाता है । दान देनेमें स्व का अनुग्रह तो यह है कि निजके अशुभ राग दूर होकर शुभ होता है और धर्मानुराग बढ़ता है, और परका अनुग्रह यह है कि दान लेनेवाले मुनिके सम्यग्ज्ञान आदि गुणोंकी वृद्धिका निमित्त होता है । ऐसा कहना कि किसी जीवके द्वारा परका उपकार हुआ सो कथनमात्र है । व्यवहारसे भी मैं परको कुछ दे सकता हूँ ऐसा मानना मिथ्या अभिप्राय है। ३-यह बात ध्यानमें रहे कि यह दान शुभरागरूप है, इससे पुण्य का बंधन होता है इसीलिये वह सच्चा धर्म नहीं है। अपनेसे अपनेमे अपने लिये शुद्ध स्वभावका दान ही सच्चा धर्म है । जैसा शुद्ध स्वभाव है वैसी शुद्धता पर्यायमें प्रगट करना इसीका नाम शुद्धस्वभावका निश्चय दान है। दूसरोके द्वारा अपनी ख्याति, लाभ या पूजा हो इस हेतुसे जो कुछ दिया जावे सो दान नही कितु अपने आत्मकल्याणके लिये तथा पात्र जीवों को रत्नत्रयकी प्राप्तिके लिये, रक्षाके लिये या पुष्टिके लिये शुभभावपूर्वक जो कुछ दिया जावे सो दान है, इसमें जो शुभभाव है सो व्यवहार दान है,
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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