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________________ अध्याय ७ सूत्र २३ ५९१ सम्यग्दर्शनको निरतिचार बनावे । धर्मरूपी कमलके मध्यमें सम्यग्दर्शनरूपी नाल शोभायमान है, निश्चयवत, शील इत्यादि उसकी पंखुड़िया हैं । इसलिये गृहस्थों और मुनियोंको इस सम्यग्दर्शनरूपी नालमें अतीचार न आने देना चाहिये। ६. पंच अतीचारके स्वरूप शंका-निज आत्माको ज्ञाता-दृष्टा, अखंड, अविनाशी और पुद्गलसे भिन्न जानकर भी इस लोक, परलोक, मरण, वेदना, अरक्षा, अगुप्ति और अकस्मात् इन सात भयको प्राप्त होना अथवा अहंत सर्वज्ञ वीतरागदेवके कहे हुये तत्त्वके स्वरूपमें सन्देह होना सो शंका नामक अतिचार है। कांक्षा-इस लोक या परलोक सम्बन्धी भोगोंमे तथा मिथ्यादृष्टियों के ज्ञान या आचरणादिमे वांछा हो आना सो वाला अतिचार है। यह राग है। विचिकित्सा-रत्नत्रयके द्वारा पवित्र किंतु बाह्यमे मलिन शरीर वाले मुनियोको देखकर उनके प्रति अथवा धर्मात्माके गुणोके प्रति या दुःखी दरिद्री जीवोंको देखकर उनके प्रति ग्लानि हो जाना सो विचिकित्सा अतिचार है । यह द्वेष है। अन्यदृष्टिप्रशंसा--प्रात्मस्वरूपके अजानकार जीवोके ज्ञान, तप, शील, चारित्र, दान आदिको निजमें प्रगट करनेका मनमे विचार होना अथवा उसे भला जानना सो अन्यहष्टिप्रशंसा अतिचार है। ( अन्यदृष्टिका अर्थ मिथ्यादृष्टि है ) अन्यदृष्टि संस्तव-प्रात्म स्वरूपके अनजान जीवोंके ज्ञान, तप, शील, चारित्र, दानादिकके फलको भला जानकर वचनद्वारा उसकी स्तुति करना सो अन्यदृष्टि संस्तव अतिचार है। ७-ये समस्त दोष होने पर सम्यग्दृष्टि जीव उन्हे दोषरूपसे जानता है और इन दोषोंका उसे खेद है, इसलिये ये अतिचार हैं । किन्तु जो जीव इन दोषोंको दोषरूप न माने और उपादेय माने उसके तो ये
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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