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________________ ५७४ मोक्षशास्त्र वैसी ही हालत उसके स्वाधीनरूपसे होती है । परद्रव्योंकी अवस्था में जीवका कुछ भी कर्तृत्व नही है । इतनी बात जरूर है कि उस समय रागी जीवके अपनेमें जो कषायवाला उपयोग और योग होता है उसका कर्ता स्वयं वह जीव है । सम्यग्दृष्टि जीव ही जगत् ( अर्थात् संसार ) और शरीर के स्वभाव का यथार्थ विचार कर सकता है । जिनके जगत् और शरीर के स्वभावकी यथार्थ प्रतीति नही ऐसे जीव ( मिथ्यादृष्टि जीव ) 'यह शरीर अनित्य है, संयोगी है, जिसका सयोग होता है उसका वियोग होता है' इसप्रकार शरीराश्रित मान्यतासे ऊपरी वैराग्य ( अर्थात् मोहगर्भित या द्वेषगर्भित वैराग्य ) प्रगट करते है, किन्तु यह सच्चा वैराग्य नही है । सच्चा ज्ञानपूर्वक वैराग्य ही सच्चा वैराग्य है । आत्माके स्वभावको जाने विना यथार्थ वैराग्य नही होता । आत्मज्ञानके बिना मात्र जगत और शरीरकी क्षणिकताके श्राश्रयसे हुआ वैराग्य अनित्य जाग्रिका है, इस भावमें धर्म नही है । सम्यग्दृष्टि अपने असंयोगी नित्य ज्ञायक स्वभावके आलम्बन पूर्वक अनित्य भावना होती है, यही सच्चा वैराग्य है ॥ १२ ॥ हिसा- पापका लक्षण प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपण हिंसा ॥ १३ ॥ अर्थ - [ प्रमत्तयोगात् ] कषाय-राग- - द्वेष अर्थात् अयत्नाचार ( असावधानीप्रमाद ) के सम्बन्धसे अथवा प्रमादी जीवके मन-वचन-काय योगसे [ प्रारणव्यपरोपरणं ] जीवके भाव प्रारणका, द्रव्यप्रारणका अथवा इन दोनोंका वियोग करना सो [ हिंसा ] हिंसा है । टीका १. जैनशासनका यह एक महासूत्र है इसे ठीक ठीक -- समभनेकी जरूरत है । इस सूत्र में 'प्रमत्तयोगात्' शब्द भाव वाचक है वह यह बतलाता है कि प्रारणोंके वियोग होने मात्रसे हिंसाका पाप नहीं किन्तु प्रमादभाव हिसा
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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