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________________ अध्याय ७ सूत्र १२ ५७३ सम्यग्दृष्टि जीवोंके जहाँतक पूर्ण वीतरागता प्रगट न हो वहाँ तक अनित्य राग-द्वेष रहता है, इसीलिये उससे भय रखनेको कहा है। जिस किसी भी तरह विकारभाव नही होने देना और अशुभराग दूर होने पर जो शुभ राग रह जाय उससे भी धर्म न मानना, किन्तु उसके दूर करनेकी भावना करना। ४. वैराग्य रागद्वेषके प्रभावको वैराग्य कहते है। यह शब्द 'नास्ति' वाचक है, किन्तु कही भी अस्तिके बिना नास्ति नही होती। जब जीवमे रागद्वेषका अभाव होता है तब किसका सद्भाव होता है ? जीवमे जितने अंशमे रागद्वेषका अभाव होता है उतने अंशमे वीतरागता-ज्ञान-आनन्द-सुखका सद्भाव होता है। यहाँ सम्यग्दृष्टि जीवोको संवेग और वैराग्यके लिये जगत् और शरीरके स्वभावका बारम्बार चितवन करनेको कहा है। ५. विशेष स्पष्टीकरण प्रश्न-यदि जीव शरीरका कुछ नही करता और शरीरकी क्रिया उससे स्वयं ही होती है तो शरीरमेसे जोव निकल जानेके बाद शरीर क्यों नही चलता? उचर-परिणाम ( पर्यायका परिवर्तन ) अपने अपने द्रव्यके आश्रयसे होता है, एक द्रव्यके परिणामको अन्य द्रव्यका आश्रय नहीं होता। पुनश्च कोई भी कार्य बिना कर्ताके नही होता; तथा वस्तुकी एक रूपसे स्थिति नही होती । इस सिद्धान्तके अनुसार जब मृतक शरीरके पुद्गलोकी योग्यता लम्बाई रूपमें स्थिर पड़े रहनेकी होती है तब वे वैसी दशामे पड़े रहते हैं और जब उस मृतक शरीरके पुद्गलोके पिंडकी योग्यता घरके बाहर अन्य क्षेत्रांतरकी होती है तब वे अपनी क्रियावती शक्तिके कारणसे क्षेत्रांतर होते है और उस समय रागी जीव वगैरह निमित्तरूप उपस्थित होते हैं, परन्तु वे रागी जीव आदि पदार्थ मुरदेको कोई अवस्था नहीं करते। मुरदेके पुद्गल स्वतंत्र वस्तु हैं, उस प्रत्येक रजकरणका परिणमन उसके अपने कारणसे होता है; उन रजकणोंकी जिस समय जैसी हालत होने योग्य हो
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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