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________________ ४४४ मोक्षशास्त्र (२) परम चैतन्य स्वभावमें परिणति रखनेवालेके परमात्मस्वरूप के भावनारूप धर्मध्यान और शुक्लध्यानके बलसे जब जघन्य चिकनेके स्थानमें राग क्षीण हो जाता है तब जैसे जल और रेतीका बन्ध नहीं होता वैसे ही जघन्य स्निग्ध या रूक्ष शक्तिधारी परमाणुका भी किसीके साथ बंध नहीं होता। (प्रवचनसार अध्याय २, गाथा ७२, श्री जयसेन प्राचार्यकी संस्कृत टीका, हिन्दी पुस्तक पृष्ठ २२७ ) जल और रेतीके दृष्टांतमें जैसे जीवोंके परमानन्दमय स्व संवेदन गुणके बलसे रागद्वेष हीन हो जाता है और कर्मके साथ बन्ध नहीं होता उसीप्रकार जिस परमाणुमें जघन्य स्निग्ध था रूक्षता होती है उसके किसीसे बंध नही होता । (हिन्दी प्रवचनसार गाथा ७३ पृ० २२८) (३) श्री प्रवचनसार अध्याय २, गाथा ७१ से ७६ तक तथा गोम्मटसार जीवकांड गाथा ६१४ तथा उसके नीचेको टीकामें यह बतलाया है कि पुद्गलोंमें बंध कब नही होता और कब होता है, अतः वह बाँचना। (४) चौतीसवें सूत्रका सिद्धांत (१) द्रव्यमें अपने साथ जो एकत्व है वह बंधका कारण नहीं होता किंतु अपनेमें-निजमें च्युतिरूपद्वैत-द्वित्व हो तब बन्ध होता है। भात्मा एकभावस्वरूप है, परन्तु मोह राग-द्वेषरूप परिणमनसे द्वैतभावरूप होता है और उससे बन्ध होता है। (देखो प्रवचनसार गाथा १७५ की टीका) आत्मा अपने त्रिकाली स्वरूपसे शुद्ध चैतन्य मात्र है। यदि पर्यायमें वह त्रिकाली शुद्ध चैतन्यके प्रति लक्ष्य करके अंतर्मुख हो तो द्वैतपन नहीं होता, बन्ध नही होता अर्थात् मोह-राग-द्वेषमें नहीं रुकता । आत्मा मोहरागद्वेष में अटकता है वही बन्ध है। अज्ञानतापूर्वकका रागद्वेष ही वास्तवमें स्निग्ध और रूक्षत्वके स्थानमें होनेसे बन्ध है ( देखो प्रवचनसार गाथा १७६ की टीका ) इसप्रकार जब आत्मामें द्वित्व हो तब बन्ध होता है और उसका निमित्त पाकर द्रव्यबन्ध होता है। (२) यह सिद्धांत पुद्गलमें लागू होता है । यदि पुद्गल अपने स्पर्शमें एक गुणरूप परिणमे तो उसके अपनेमे ही बन्धकी शक्ति (भावबंध) प्रगट न
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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