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________________ मध्याय ५ सूत्र ३० ४२६ व्यय-स्वजाति यानी मूल स्वभावके नष्ट हुए बिना जो चेतन तथा अचेतन द्रव्यमें पूर्व अवस्थाका विनाश (उत्पादके समय ही) होना सो व्यय है। ध्रौव्य-अनादि अनन्तकाल तक सदा बना रहनेवाला मूल स्वभाव जिसका व्यय या उत्पाद नही होता उसे ध्रौव्य कहते है (देखो तत्त्वार्थसार अध्याय ३ गाथा ६ से ८) (४) सर्वार्थसिद्धिमे ध्रौव्यकी व्याख्या इस सूत्र की टीकामे पृष्ठ १०५ में संस्कृतमे निम्नप्रकार दी है:"अनादिपारिणामिकत्वभावेन व्ययोदयाभावातध्रवति स्थिरी भवतीति ध्रवः " अर्थः-जो अनादि पारिणामिक स्वभावके द्वारा व्यय तथा उत्पाद के अभावसे ध्रव रहता है-स्थिर रहता है वह ध्रुव है। (५) इस सूत्रमे 'सत्' का अनेकांत रूप बतलाया है । यद्यपि त्रिकालापेक्षासे सत् 'ध्रुव' है तो भी समय समय पर नवीन पर्याय उत्पन्न होती है और पुरानी पर्याय नष्ट होती है अर्थात् द्रव्यमे समा जाती है, वर्तमान काल की अपेक्षासे प्रभावरूप होता है इस तरह कथंचित् नित्यत्व और कथंचित् अनित्यत्व द्रव्यका अनेकांतपन है। (६) इस सूत्रमे पर्यायका भी अनेकातपन बतलाया है । जो उत्पाद है सो अस्तिरूप पर्याय है और जो व्यय है सो नास्तिरूप पर्याय है। स्वकी पर्याय स्वसे होती है परसे नही होती ऐसा 'उत्पाद' से बताया। स्व पर्यायको नास्ति-अभाव भी स्वसे ही होता है, परसे नहीं होता । "प्रत्येक द्रव्यका उत्पाद व्यय स्वतंत्र उस द्रव्यसे है" ऐसा बताकर द्रव्य, गुरण तथा पर्यायकी स्वतंत्रता बतलाई-परका असहायकपन बतलाया। (७) धर्म ( शुद्धता ) आत्मामें द्रव्यरूपसे त्रिकाल भरपूर है, अनादिसे जीवके पर्याय रूपमे धर्म प्रगट नहीं हुआ, किंतु जीव जब पर्याय में धर्म व्यक्त करे तब व्यक्त होता है, ऐसा उत्पाद शब्दका प्रयोग बताया और उसी समय विकारका व्यय होता है ऐसा व्यय शब्दको कहकर बताया।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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