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________________ अध्याय ५ सूत्र २६ ४२७ जाय अर्थात् व्यर्थ हो जाय किन्तु व्यर्थंका ( अपने कार्य रहित ) कोई द्रव्य होता ही नही । इससे यह सिद्ध हुआ कि प्रत्येक द्रव्यमें 'वस्तुत्व' नामका गुण है । (८) और वस्तुत्व गुरण के कारण जो स्वयं अपनी क्रिया करे वही वस्तु कहो जाती है । इससे यह सिद्ध हुआ कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ कर नही सकता | (६) पुनरपि जो द्रव्य है उसका 'द्रव्यत्व' 'गुरणत्व' जिस रूपमें हो वैसा कायम रहकर परिणमन करता है किन्तु दूसरेमे प्रवेश नहीं करा सकता, इस गुरणको 'अगुरुलघुत्व' गुण कहते है । इसी शक्तिके कारण द्रव्य का द्रव्यत्व रहता है और एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप परिणमित नहीं होता, और एक गुण दूसरे गुणरूप परिणमित नहीं होता, तथा एक द्रव्यके अनेक (अनन्त) गुण विखर कर अलग अलग नही हो जाते । (१०) इस तरह प्रत्येक द्रव्यमे सामान्य गुरण बहुत से होते हैं किंतु मुख्य रूपसे छह सामान्य गुण हैं १ - अस्तित्व ( जो इस सूत्रमे 'सत्' शब्द के द्वारा स्पष्ट रूपसे बतलाया है ), २-वस्तुत्व ३ द्रव्यत्व ४ - प्रमेयत्व ५- अगुरुलघुत्व और ६ - प्रदेशत्व । -- (११) प्रदेशत्व गुरण की ऐसी व्याख्या है कि जिस शक्ति के कारण द्रव्यका कोई न कोई आकार अवश्य हो । (१२) इन प्रत्येक सामान्य गुरगोमे 'सत्' (अस्तित्व) मुख्य है क्योंकि उसके द्वारा द्रव्यका अस्तित्व ( होने रूप - सत्ता ) निश्चित होता है । यदि द्रव्य हो तो ही दूसरे गुरण हो सकते हैं, इसलिये यहाँ 'सत्' को द्रव्यका लक्षण कहा है | (१३) प्रत्येक द्रव्यके विशेष लक्षण पहले कहे जा चुके हैं वे निम्न प्रकार हैं- ( १ ) जीव - अध्याय २, सूत्र १ तथा ८ ( २ ) अजीवके पांच भेदोंमेसे पुद्गल अध्याय ५ सूत्र २३ | धर्म और अधर्म - अध्याय ५ सूत्र १७ आकाश - अध्याय ५, सूत्र १८ और काल- अध्याय ५ सूत्र २२ । जीव तथा पुद्गलको विकारी अवस्थाका निमित्त नैमित्तिक संबंध इस अध्याय के सूत्र १६, २०, २१, २४, २५, २६, २७, २८, ३२, ३५,
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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