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________________ मोक्षशास्त्र छोड़कर दूसरे सात प्रकारके व्यन्तरदेव 'खरभागमें रहते हैं। २. जुदी जुदी दिशाओंमें इन देवोंका निवास है इसलिये उन्हें व्यन्तर कहते हैं, उपरोक्त पाठ संज्ञाएँ जुदे २ नामकर्मके उदयसे होती हैं । उन संज्ञाओंका कुछ लोग व्युत्पत्तिके अनुसार अर्थ करते हैं किन्तु ऐसा अर्थ गलत है अर्थात् ऐसा कहनेसे देवोंका अवर्णवाद होता है और मिथ्यात्वके बंधका कारण है। ३. पवित्र वैक्रियिक शरीरके धारी देव कभी भी मनुष्योंके अपवित्र औदारिक शरीरके साथ कामसेवन करते ही नही; देवोंके मांस भक्षण कभी होता ही नही, देवोंको कंठसे झरनेवाला अमृतका आहार होता है, किन्तु कवलाहार नही होता। ४. व्यन्तर देवोंके स्थानमें जिनप्रतिमासहित आठ प्रकारके चैत्यवृक्ष होते है और वे मानस्थंभादिक सहित होते हैं। ५. व्यन्तर देवोंका आवास-द्वीप, पर्वत, समुद्र, देश, ग्राम, नगर, निराहा, चौराहा, घर, आँगन, रास्ता, गली, पानीका घाट, बाग, वन, देवकुल इत्यादि असंख्यात स्थान हैं ॥ ११ ॥ ज्योतिषी देवों के पाँच भेद ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्र प्रकीर्णकतारकाच ॥ १२॥ अर्थ-ज्योतिषी देवोंके पांच भेद है-१-सूर्य, २-चन्द्रमा, ३ग्रह, ४-नक्षत्र, और ५- प्रकीर्णक तारे । टीका ज्योतिपी देवोंका निवास मध्यलोकमें सम घरातलसे ७६० योजनकी ऊंचाईसे लेकर ६०० योजनकी ऊंचाई तक आकाशमें है सबसे नीचे तारे है, उनसे १० योजन ऊपर सूर्य हैं; सूर्यसे ८० योजन ऊपर चन्द्रमा हैं;
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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