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________________ अध्याय ४ सूत्र ६-१० ३४७ मालुम नहीं होते फिर भी उनके तीव्रकषायशक्ति होनेसे कृष्णादि लेश्याएं कही गई हैं। (२) दूसरे भागका दृष्टांत यह सूत्र ही है, जो यह बतलाता है कि सर्वार्थसिद्धिके देव कषायरूप अल्प प्रवृत्त होते है। वे अब्रह्मचर्यका सेवन नही करते, उनके देवांगनाएँ नही होती, फिर भी पंचमगुणस्थानवर्ती ( देशसंयमी ) की अपेक्षा उनके कषायशक्ति अधिक होनेसे वे चतुर्थगुणस्थानवर्ती असंयमी है । पचमगुणस्थानवर्ती जीव व्यापार और अब्रह्मचर्यादि कपायकार्यरूप बहुत प्रवृत्ति करते हैं फिर भी उनको मदकषायशक्ति होनेसे देशसंयमी कहा है, और यह सूत्र यह भी बतलाता है कि नवग्रेवेयकके मिथ्यादृष्टि जीवोके बाह्यब्रह्मचर्य है फिर भी वे पहिले गुणस्थानमे है, और पचमगुणस्थानवर्ती जीव विवाहादि करते हैं तथा अब्रह्मचर्यादिकार्यरूप प्रवृत्ति करते है फिर भी वे देशसंयमी सम्यग्दृष्टि है।। ५. इस सूत्रका सिद्धांत वाह्य संयोगोके सद्भाव या असद्भावका और बाह्य प्रवृत्ति या निवृत्ति को देख करके बाह्य स्वांगके अनुसार जीवकी अपवित्रता या पवित्रता का निर्णय करना न्यायविरुद्ध है; और अंतरग मान्यता तथा कषायशक्ति परसे ही जीव की पवित्रता या अपवित्रता का निर्णय करना न्यायपूर्ण है । मिथ्यादृष्टि जीव बहिरात्मा (बाहरसे आत्माका नाप करनेवाला) होता है इसलिये वह यथार्थ निर्णय नही कर सकता, क्योकि उसका लक्ष वाह्य संयोगोंके सद्भाव या असद्भाव पर तथा बाह्य-प्रवृत्ति या निवृत्ति पर होता है इसलिये उसका निर्णय बाह्य स्थितिके आधारसे होता है। सम्यग्दृष्टि जीव अन्तरात्मा (अन्तष्टिसे आत्माका नाप करनेवाला) होता है इसलिये उसका निर्णय अंतरंग स्थिति पर अवलंबित होता है; इसलिये वह अन्तरंगमान्यता और कषायशक्ति कैसी है इसपरसे निर्णय करता है, इसलिये उसका निर्णय यथार्थ होता है ॥ ६ ॥ भवनवासी देवोंके दश भेद भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितो
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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