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________________ अध्याय ३ सूत्र ३६ ३२७ ६. चौथी तप ऋद्धि तपऋद्धि सात प्रकारको है-(१) उग्रतप, (२) दीप्तितप, (३) निहारतप, (४) महानतप, (५) घोरतप, (६) घोरपराक्रमतप औरा (७) घोर ब्रह्मचर्यतप । उसका स्वरूप निम्नप्रकार है। एक उपवास या दो-तीन-चार-पांच इत्यादि उपवास के निमित्तसे किसी योगका आरंभ हुआ तो मरणपर्यंत उपवासके उन दिनोंसे कम दिनों मे पारणा नहीं करता, किसी कारणसे अधिक उपवास हो जाय तो मरणपर्यंत उससे कम उपवास करके पारणा नहीं करता, ऐसी सामर्थ्य प्रगट होना सो उग्रतप ऋद्धि है ॥ १ ॥ महान उपवासादिक करते हुए मनवचन-कायका वल बढता ही रहे, मुख दुर्गंध रहित रहे, कमलादिककी सुगंध जैसी सुगंधित श्वास निकले और शरीर को महान् दीप्ति प्रगट हो जाय सो दीप्तिऋद्धि है ॥२॥ तपे हुए लोहेकी कढ़ाईमें पानी की बून्र्दे पड़ते ही जैसे सूख जाय, तैसे आहार पच जाय, सूख जाय और मल रुधिरादिरूप न परिणमे तथा निहार भी न हो सो निहारतपऋद्धि है ।।३।। सिंहक्रीड़ितादि महान तप करनेमें तत्पर होना सो महानतपऋद्धि है ॥ ४ ॥ वात, पित्त, श्लेष्म इत्यादिसे उत्पन्न हुए ज्वर, खांसी, श्वास, शूल, कोढ़, प्रमेहादिक अनेक प्रकारके रोगवाला शरीर होने पर भी अनशन, कायक्लेशादि न छूटें और भयानक स्मशान, पर्वतका शिखर, गुफा, खण्डहर, ऊजड़ ग्राम इत्यादि में दुष्ट राक्षस, पिशाचादि प्रवर्तित हों और बुरे विकार धारण करें तथा गीदड़ोंका कठोर रुदन, सिंह-व्याघ्र इत्यादि दुष्ट जीवोंका भयानक शब्द जहाँ निरंतर होता हो ऐसे भयंकर स्थानमें भी निर्भय होकर रहे सो घोरतपऋद्धि है ॥५॥ पूर्वोक्त रोगसहित शरीर होने पर भी अति भयंकर स्थानमे रहकर योग (स्वरूपकी एकाग्रता) बढ़ानेकी तत्परताका होना सो घोरपराक्रमतपऋद्धि है ॥ ६ ॥ बहुत समयसे ब्रह्मचर्यके धारक मुनिके अतिशय चारित्रके बलसे ( मोहनीयकर्मके क्षयोपशम होने पर ) खोटे स्वप्नोंका नाश होना सो घोर ब्रह्मचर्यतपऋद्धि है ॥ ७ ॥ इसप्रकार सात प्रकारको तप ऋद्धि है।।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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