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________________ अध्याय ३ सूत्र ३६ ३२३ मिलते नहीं हैं, उसीप्रकार दूसरेके उपदेशसे ग्रहण किये हुये बहुतसे शब्द, अर्थ, बीज जिस बुद्धिमें जैसे तैसे रहते है एक अक्षर घट बढ़ नही होते आगे पीछे अक्षर नही होते वह कोष्टबुद्धि है । (६) पदानुसारिणीबुद्धि - ग्रन्थके प्रारम्भ मध्य और अन्तका एक पद श्रवण करके समस्त ग्रन्थ तथा उसके अर्थका निश्चय करना सो पदानुसारिणीबुद्धि है | (७) संभिन्नश्रोतृत्वबुद्धि - चक्रवर्ती की छावनी चार योजन लम्बी और नवयोजन चौड़ी पड़ी होती है उसमे हाथी, घोड़ा, ऊँट, मनुष्यादिके जुदे २ प्रकारके अक्षर-अनक्षरात्मक शब्द एक समय एक साथ उत्पन्न होते हैं उसे तपविशेष के कारण ( वीर्यान्तराय श्रुतज्ञानांतराय तथा श्रोत्रेन्द्रियावरण कर्मका उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेपर ) एक कालमे जुदे जुदे श्रवण करना सो सभिन्नश्रोतृत्वबुद्धि है । (८) दूरास्वादन समर्थ ताबुद्धि-तपविशेष के कारण ( प्रगट होनेवाले असाधारण रसनेन्द्रिय श्रुतज्ञानावरण, वीर्यान्तरायके क्षयोपशम और आगोपाग नामकर्मके उदयसे ) मुनिको रसका जो विषय नवयोजन प्रमारण होता है उसके रसास्वादनकी ( रस जाननेकी ) सामर्थ्य होना सो दूरास्वादनसमर्थताबुद्धि है । (९-१२) दूरदर्शन - स्पर्शन - घाण - श्रोतृसमर्थताबुद्धि —ऊपर लिखे अनुसार चक्षुरिन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, और श्रोत्रेन्द्रियके विषयके क्षेत्रसे बाहर बहुतसे क्षेत्रोके रूप, स्पर्श, गंध और शब्द को जानने की सामर्थ्य का होना सो उस उस नामकी चार प्रकारकी बुद्धि है । (१३) दशपूर्वित्वबुद्धि - महारोहिणी इत्यादि विद्या- देवता तीन बार आवे और हर एक अपना २ स्वरूप सामर्थ्य प्रगट करें ऐसे वेगवान विद्या- देवताओ के लोभादिसे जिनका चारित्र चलायमान नही होता उसे दशपूवित्वबुद्धि कहते है ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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