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________________ गाथा ११३ पृष्ठ १४७-४८ टीका और भावार्थ २०० - २४३ " (७) श्री समयसारजी शास्त्रकी टीकामें कलशोंकी श्री राजमलजी कृत टीका ( सूरतसे प्रकाशित ) में पृष्ठ १० मे कहा है कि ताको व्योरो"यह जीव इतना काल वीत्या मोक्ष जासै इसो न्योधु ( नोंध ) केवलज्ञान माहे छै ।" (८) अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी भी भविष्यकी पर्यायोंको निश्चितरूपसे स्पष्ट जानते ही हैं, और नक्षत्रों, सूर्य, चन्द्र तथा ताराप्रोकी गति उदय अस्त ग्रहणकाल आदिको निश्चितरूपसे अल्पज्ञ जीव भी जान सकते हैं तो सर्वज्ञ वीतराग पूर्णज्ञानी होनेसे सर्व द्रव्योंकी सर्व पर्यायोंको निश्चितरूपसे ( उसके क्रममे नियत ) कैसे नही जान सकता ?-अवश्य जानता ही है। (8) इस कथनका प्रयोजन-स्वतंत्र वस्तु स्वरूपका ज्ञान द्वारा केवलज्ञान स्वभावी अपनी आत्माका जो पूर्णस्वरूप है उसका निश्चय करके, सर्वज्ञ वीतराग कथित तत्त्वार्थोका वास्तविक श्रद्धान कराना और मिथ्या श्रद्धा छुड़ाना चाहिये । क्रमबद्धके सच्चे श्रद्धानमे कर्तापनेका और पर्यायका आश्रयसे छूटकर अपना त्रैकालिक ज्ञाता स्वभावकी दृष्टि और आश्रय होता है, उसमे स्वसन्मुख ज्ञातापनेका सच्चा पुरुषार्थ, स्वभाव, काल नियति और कर्म उन पांचोंका समूह एक ही साथ होता है, यह नियम है। ऐसा अनेकान्त वस्तुका स्वभाव है ऐसा श्रद्धान करना, कारण कि उसकी श्रद्धा विना किये सच्ची मध्यस्थता आ सकतो नही । २३-तत्त्वज्ञानी स्व० श्री पं० बनारसीदासजीने 'परमार्थ वचनिकामे' ज्ञानी अज्ञानीका भेद समझनेके लिये कहा है कि: (१) अब मूढ़ तथा ज्ञानी जीवको विशेषपणों और भी सुनो,ज्ञाता तो मोक्षमार्ग साघि जान, मूढ़ मोक्षमार्ग न साधि जाने, काहे-यात
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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